________________
'महाप्रज्ञ—अतीत और वर्तमान' में उपलब्ध सूक्तियां
समणी सत्यप्रज्ञा
जीवन एक प्रश्न है और जीवन के नियम - महाप्रश्न । जीवन में होने वाली घटनाओं, सन्दर्भो, शब्दों, उतार-चढ़ावों को समझ पाना हरेक के वश की बात नहीं। जीवन की परिक्रमा करते समय अनेक समय अनेक सन्दर्भ आते हैं- व्यक्ति की प्रेरणा देने, अनेक लक्ष्य आते हैं, उसे प्रतीति देने, और अनेक क्षण आते हैं उसे शाश्वत का प्रबोध देने। सर्वोत्तम प्रेरणाओं को ग्रहण करने में प्रत्येक मनुष्य समान रूप से समर्थ नहीं होता। प्रवाह आता है चला जाता है। पारदर्शी प्रज्ञा के धनी कुछेक विरल व्यक्तित्व होते हैं जिनके हृदय से वाणी तक सरस सूक्तियों की परम्परा प्रवाहित रहती है । जिनका हर वाक्य एक सूक्त हो जाता है। सच्चे अर्थों में वह मानव जाति का महान हितैषी है जो जीवन के महान् नियमों को सूत्रों में समेट देता है । जो स्मृति में सरलता से अंकित हो जाते हैं और मस्तिष्क में स्वभाव वश बराबर आते रहते हैं।'
आचार्यश्री महाप्रज्ञ कोई पौद्गलिक शरीर निविष्ट व्यक्ति का नाम नहीं । बल्कि संयम, साधना और अविनय ऋत का माधवी रूपांतर का सुन्दर एवं शिष्ट अभिधान है जिसमें काल, समयादि की सम्पूर्ण सीमाएं स्वयं विरक्त हो गई हैं जो सत्य, शिव और सुन्दर का श्री निकेतन बन चुका है । 'महाप्रज्ञ-अतीत और वर्तमान' नामक ग्रन्थ इसी सौन्दर्य--निकेतन की महायात्रा को रेखांकित करता है। इस ग्रन्थ में सत्य का व्यावहारिक अवबोध, अवितथता का मानवीय रूपांतर परिलक्षित होता है । प्रस्तुत शोध निबंध में इसी ग्रन्थ में बिखरे सूक्ति रत्नों की विवेचन किया जा रहा है।
सूक्ति शब्द --सु+उक्ति के मेल से बना है । सु एक निपात है जो कर्मधारय व बहुब्रीहि समास बनाने के लिए संज्ञा शब्दों से पूर्व तथा विशेषण और क्रिया-विशेषणों के पूर्व भी जोड़ा जाता है । अच्छा, भला, श्रेष्ठ, सुन्दर, मनोहर, खूब, सर्वथा, पूरी तरह, ठीक प्रकार से, आसानी से, तुरंत, अत्यधिक, अच्छी प्रकार आदि अनेक अर्थों में इसका प्रयोग होता है।' 'वच वक्तायां' वाचि धातु से क्तिन प्रत्यय करने पर तथा संप्रसारण आदि करने पर उक्ति शब्द बनता है। जिसका अर्थ होता है-भाषण, अभिव्यक्ति, बक्तव्य, वाक्य, अभिव्यक्त करने की शक्ति, शहद की अभिव्यंजना शक्ति आदि । इस प्रकार सूक्ति का अर्थ हुआ-सुन्दर वचन, प्रभावक अभिव्यक्ति, अच्छा भाषण, सुष्ठ वाक्य ।
अच्छा वचन और अच्छे वचनों में निहित सचाईयां हर किसी के मन को लुभाने वाली होती हैं । अनुभूतियों की गहराई में पहुंचकर जब कोई भी चिंतक उसे
खण्ड २०, अंक ४
३४९
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org