SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 92
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हैं । अक्षरांक तेरापन्थ शब्द वैज्ञानिक अध्ययन डॉ० जैन समाज में 'तेरापन्थ' की स्थापना लगभग २३५ वर्षों पूर्व केलवा गांव में हुई। इस पन्थ का नामकरण आचार्य भिक्षु ने अपनी सूझ-बूझ से किया कि हे अरिहंत देव | यह पन्थ आपका (तेरा) है। हम तो इस पंथ के अनुयायी हैं । वैज्ञानिक दृष्टि से तेरापथ शब्द को आंकते हैं तो निम्न तथ्य हमारे सम्मुख आते इस शब्द में कुल चार अक्षर हैं जिनका अर्थ है, यह पंथ चारों दिशाओं में फैले । प्रथम और अन्तिम अक्षर त वर्ग के 'त' और 'थ' हैं । भारतीय नृत्य व अवनद्य - वाद्य यंत्रों में इनका सर्वाधिक महत्व हैं । 'त वर्ग, को शुद्ध व सात्विक ध्वनि वाला वर्ग माना है । नृत्य और अवनद्य बांधों में प्रयुक्त किए जाने वाले बोल (शब्द) इस वर्ग के माध्यम से रचनाओं का गठन करते हैं । शास्त्रीय नृत्य में 'त' का अर्थ तांडव और 'थ' का अर्थ 'लास्य नृत्य' है। शिव ने तांडव नृत्य किया और भगवती पार्वती ने लास्य । तांडव नृत्य पापों का संहार करने वाला है और लास्य प्राणीमात्र का कल्याण करसे वाला माना गया है । अतः 'त' और 'थ' इस दृष्टि से पापों का संहार और प्राणीमात्र का कल्याण करने वाले सिद्ध होते हैं । 'त' अक्षर पर 'ए' की मात्रा है । जिसकी बनावट रेखा के रूप में है, जो आकाशीय शक्ति को खींच कर 'त' बनाती है । यह रेखा बारहखड़ी की सातवीं मात्रा है जिसमें गुण व शक्ति है । खण्ड २०, ० जयचन्द्र शर्मा तेरापन्थ शब्द में द्वितीय अक्षर 'रा' है । वर्णमाला में इसका स्थान सत्ताईसवां है, जो सत्ताईस गुणों से सुशोभित साधु-साध्वियों को नमन करने की प्रेरणा देने वाला है । संगीत के सप्त-स्वरों में भी इसका द्वितीय स्थान है। जिसकी कम्पन संख्या २७० है । इस संख्या से बिन्दु को पृथक् कर दिया जाय तो सत्ताईस रह जाते हैं जिसके गुण सत्ताईस हैं । तृतीय अक्षर 'पं' है । पं से पंचम स्वर का बोध होता है । इसकी ध्वनि अति मधुर मानी गई है । 'पंचम स्वर में कोयल बोले' अर्थात् इसकी आवाज साहित्य और संगीत की दृष्टि से प्राणी मात्र को लुभाने वाली है । वर्णमाला में इसका इक्कीसवां स्थान है । तेरापंथ समाज ने श्रावक के इक्कीस गुण माने हैं । इस अक्षर पर बिन्दु है, ३४७ अंक ४ Jain Education International ऊपर से नीचे की ओर एक अर्थात् तन को शक्तिशाली सूर्य की सप्त- रश्मियों के For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524582
Book TitleTulsi Prajna 1995 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy