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________________ 'बभ्र रेको' (८.२९.१-१०)-दश 'परि प्रधन्व' (९.१०९.१-१०)-दश 'तं ते सोतारः' (९.१०९.१-१२) द्वादश 'इमानुकम्' (१०.१५७.१-४)-- चत्वारि 'अपाहिवनसा' (१०.१७२.१-४)-चत्वारि इति नैमित्तिक द्विपदा चत्वारिंशत्तरशतम् (१४०) इति ।'--- (देखें :-चौखंवा सीरिज, काशी, सं० १९९५) । ११. टीकाकार महिदास ने वर्ग संख्या और मंत्र संख्या से सम्बन्धित कुछ प्राचीन श्लोक उद्धृत किए हैं एकर्च एक वर्गश्च एकर्च नवकस्तथा । द्वौ वर्गौ तु द्धची ज्ञेयो ऋक् त्रयस्य शतं स्मृतम् ॥ चतुऋचां पंच सप्तत्यधिकं च शतं तथा । पञ्चचं तु द्वि शतकं सहस्रं रूद्र संयुतम् ।। पञ्च चत्वार्यधिकं षट् ऋचा तु शतत्रयम् । सप्त ऋचां शतं ज्ञेयं विंशतिश्चाधिका स्मृताः ।। अष्ट ऋचां तु पंचाशत् पंचाधिकास्तथैव च । दशाधिक द्विसहस्रा: पंच शाखासु निश्चिताः ।। वर्गाः संज्ञान सूक्तस्य चत्वारश्चात्र मीलिताः । एवं पारायणे प्रोक्ता ऋचां संख्या न न्यूनत: ॥ ये श्लोक अशुद्ध दीखते हैं किंतु इनमें ऋषि शाकल और उनके चार शिष्यों द्वारा संग्रहीत पांच शाखाओं की मंत्र-संख्या दी हुई है । संज्ञान सूक्त की १५ ऋचाएं भी इसमें शामिल है और वर्ग-संख्या भी २०१० बताई गई तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524582
Book TitleTulsi Prajna 1995 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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