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________________ और मंत्र संख्यादि सहित दिए मिले हैं। -देखें, "एपोक्रिफेन डेस ऋग्वेद", बोन, १९०६ (पत्रक १७६-१८९)। जैन विश्व भारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय), लाडनूं के वर्द्धमान ग्रन्थागार में भी ऋग्वेद की एक दुर्लभ प्रतृण्ण संहिता है जो अष्टक और वर्गों में लिखी है। पं० सदाशिव उपाध्याय पुत्र सखोबा उपनाम पराड़कर द्वारा यह संहिता ज्येष्ठ वदि सप्तमी सोमवार प्रमोद-संवत्सर विक्रमी सं० १८५६ में एक अष्टक पूर्ण करके कातिक वदि द्वितीया सोमवार वष-संवत्सर सं० १८६७ में पूरी हुई है। प्रति में क्रमश: ८३+७४+८०+१+१+९२+९४+९२ क्रम से कुल ६७७ पत्रक हैं और आठों अध्यायों में क्रमश: २६५+२३१+ २२५+२५०+-२३८+३३१+३५६+२४६- कुल २०३२ वर्ग हैं। इसके छठे अष्टक के चौथे अध्याय में वर्ग १४ वें से ३१ वें तक १८ वर्ग बालखिल्यों के हैं। ७. निविद, पुरोरुक, प्रेष और कुतांप ऋक भी खिल भाग में शामिल होती है। बृहद्देवता (८.१०४) और शांखायन श्रौत सूत्र (८.१६-२३) में निविद ऋचाएं हैं जो गद्य रूप में हैं।। ८. शौनक ऋषिकृत आर्षानुक्रमणी सम्प्रति अनुपलब्ध है किन्तु यह स्पष्ट है कि कश्यप आर्ष में एक हजार सूक्त थे और षड्गुरुशिष्य के अनुसार उनमें पांच लाख चार सौ निन्यानवें मंत्र (ऋचाएं) थे। इस प्रकार सम्भवत : यह ऋग्वेद की कोई बड़ी शाखा थी। ९ लौंगाक्षिस्मृति में यह स्पष्टीकरण दिया हुआ है ऋचां दश सहस्राणि ऋचां पंचशतानि च। ऋचामशीति : पादश्च पारायण विधौ खलु ॥ पूर्वोक्त संख्यायाश्चेत्तु सर्वशाखोक्त सूत्रगाः । मंत्राश्च व मिलित्वैव कथनं चेति तत्पुनः ।। १०. "हवने एकैका अध्ययने द्वे द्वे आमनन्ति ।" 'पश्वानतायुम्' (१.६५.१-१०)-दश 'रयिर्न' (१.६६.१-१०)-दश 'वनेष' (१.६७.१-१०)--दश 'श्रीणन्' (१.६८.१-१०)-दश 'शुक्र शुशुक्वान' (१.६९.१-१०)- दश 'वनेम पूर्वी:' (१,७०.१-१०)-- दश 'अग्नेत्वं न:' (५.२४.१-४)--चत्वारि 'अग्नेभव' (७.१७.१-६) - षट् 'प्रशुतु' (७.३४.१-१०)--दश 'राजा राष्ट्राणाम्' (७.३४.११-२०)-दश 'कई व्यक्ता' (७.५६.१-१०)- दश खंड २०, अंक ४ ३३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524582
Book TitleTulsi Prajna 1995 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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