________________
अहिंसक अपने से शत्रुता रखने वालों को प्रिय मित्र मानता है और कष्ट देने वालों पर तनिक भी क्रुद्ध नहीं होता । वह अपना विकास कर लेता है, इस तथ्य को पुष्ट करते हुए कहा है ....
अशुभानां पुद्गलानां, प्रवृत्त्या शुभया क्षयः ।
असंयोग: शुभानाञ्च, निवृत्त्या जायते ध्रुवम् ॥" निवृत्ति भी अभ्यास-साध्य होती है इसकी सिद्धि की गयी है
विद्यमाने शरीरेऽस्मिन्, सततं कर्म जायते । निवृत्तिरसत: कार्या, प्रवत्तिश्च सतस्तथा ॥२७
जब तक शरीर विद्यमान रहता है तब तक निरन्तर कर्म होता रहता है । इस दशा में असत्कर्म की निवृत्ति और सत्कर्म की प्रवृत्ति करनी चाहिए । असत् की निवृत्ति होते-होते एक दिन सत् की भी निवृत्ति हो जाती है ।
उपर्युक्त सभी गाथाओं में अनुष्टुप छन्द के लक्षण घटित होते हैं। इन्द्रवज्रा
दार्शनिक सिद्धांतों का सहज अभिव्यंजन एवं श्रुतिमधुर अनुरणन के लिए इस छन्द का प्रयोग किया जाता है। यह एकादश अक्षर वाला समछन्द है। इसके प्रत्येक प्रत्येक चरण में तगण-तगण जगण और दो गुरु वर्ण होते हैं । छन्दोमंजरी में कहा गया
"स्यादिन्द्र वज्रा यदि तो जगौगः ।" संबोधि में अत्यल्प प्रयोग हुआ है। मोहायतन (तृष्णा) के विनाश का चित्रण कारण परम्परालंकारालंकृत एवं माधुर्य-प्रसाद गुण मंडित इन्द्रवज्रा छन्द में किया गया है
दुःखं हतं यस्य न चास्ति मोहो, मोहो हतो यस्य न चास्ति तृष्णा। तृष्णा हता यस्य न चास्ति लोभो, लोभो हतो यस्य न किञ्चनास्ति ।"
इस श्लोक के प्रत्येक चरण में त, त, ज और दो ग हैं तथा एकादश अक्षर हैं। विश्लेषण अधोविन्यस्त हैं---
दुःखं हतं यस्य न चास्ति मोहो यहां पर त= दुःखं ह=ss१
त=तं यस्य-Ss१
जन चास्ति= ११ अंत में दो गुरु-मोहो=ss
११ अक्षर एक अन्य उदाहरण इस प्रकार है--- द्वेषञ्च रागञ्च तथैव मोह-मुद्धर्तुकामेन समूलजालम् ।
ये ये ह्य पाया अभिषेवणीया-स्तान कीर्तयिष्यामि यथानुपूर्वम् । इसके प्रत्येक चरण में एकादश अक्षर-त, त, ज और ग, ग के क्रम से उपन्यस्त
खण्ड २०, अंक ४
३२३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org