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उपेन्द्रवज्रा और शेष अनुष्टुप छन्द में निबद्ध हैं । आचार्यश्री महाप्रज्ञ विरचित संस्कृत वाङ्मय के अधिकांश भाग में अनुष्टुप् छन्द ही विनियुक्त है ।
अनुष्टुप
तत्त्वदर्शन, धर्मचिंतन, उपदेश, आख्यान, कथा-विस्तार, संवाद, देश, नगर, इतिहास आदि के निरुपण के लिए प्रस्तुत छन्द का विनियोग किया जाता है। भावों की निर्मलता, भव्यता एवं उदात्तता आदि को उद्घाटित करने के लिए यही छन्द प्रयुक्त होता है । संस्कृत साहित्य में यह छन्द इतना प्रथित है कि वैदिक काल से लेकर आज तक सभी प्रसिद्ध कवियों ने इसका प्रयोग किया । आदि कवि का तो अनुष्टुप सर्वस्व ही है, ऋषि, व्यास, कालिदास, अश्वघोष आदि सबने इसका प्रभूत उपयोग किया है । आचार्यश्री महाप्रज्ञ इसकी महनीयता से पूर्णतया परिचित हैं । इसलिये संपूर्ण संबोधि ( केवल कुछ श्लोकों को छोड़कर) इसी छन्द में निबद्ध हैं ।
यह वर्णिक छन्द है । इसमें चारों चरण समान होते हैं । प्रत्येक चरण का पांचवां वर्ण लघु, छट्टा दीर्घ तथा सातवां वर्ण प्रथम तथा तृतीय चरण में दीर्घ एवं द्वितीय तथा चतुर्थ चरण में ह्रस्व होता है
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इसे वक्त्र छन्द भी कहा जाता है । छन्दोमंजरी के अनुसारपञ्चमं लघु सर्वज्ञ, सप्तमं द्विचतुर्थयोः । गुरुषष्ठं च पादानां शेषैष्वनियमो मतः ॥
प्रयोगे प्रायिकं प्राहु. केऽप्येतद्वृत्तलक्षणम् ।
लोकेऽनुष्टुति ख्यातं तस्याष्टाक्षरतामता ॥
इसमें सभी चरणों में पाचवा अक्षर लघु होता है, दूसरे चौथे चरणों में सातवां लघु तथा छट्टा गुरु होता । शेष वर्णों का कोई नियम नहीं होता । दूसरे आचार्य इसको 'अनुष्टुप छन्द मानते हैं ।
सम्बोधि में इस छन्द का प्रयोग मेघकुमार के आख्यान निरूपण एवं जैनदर्शन के तथ्यों के उपपादन के क्रम में किया गया है । उदाहरणस्वरूप
अकष्टासादितो मार्गः, कष्टापाते प्रणश्यति । कष्टेनापादितोमार्गः, कष्टेष्वपि न नश्यति ॥
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इसमें अनुष्टुप छन्द के सारे लक्षण घटित होते हैं। इसके चारों चरण समान हैं । प्रत्येक चरण का पांचवा अक्षर लघु है, छट्टा गुरु है । प्रथम एवं तृतीय चरण में सातवां अक्षर गुरु तथा द्वितीय एवं चतुर्थ चरण में लघु है । अन्य उदाहरण भी द्रष्टव्य
है
सन्तोऽसन्तश्च संस्काराः, निरुद्ध्यन्ते हि सर्वथा । क्षीयन्ते सञ्चिताः पूर्वं धर्मेणैतच्च तत्फलम् ॥
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धर्म से सत् और असत् संस्कार निरुद्ध होते हैं तथा पूर्व-संचित संस्कार क्षीण होते हैं । यही धर्म का फल है। कहा भी है
अपि शात्रवमापन्नान्, मनुते सुहृदः प्रियान । अपि कष्टप्रदायिभ्यो, न च क्रुद्धेन्मनागपि ॥
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तुलसी प्रज्ञा
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