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हिमालयान्तं वसुधाविभाग,
- कृत्वा वलक्षं यशसा स्वकेन । संस्थापयिष्यामि शिवं मुदेति,
ध्यात्वारुरोहोत्तरदिग्गजं सः ।। इसमें शौर्य का दिग्दर्शन बहुत ही सुन्दर ढंग से कराया गया है । इन्द्रवज्रा
रत्नपाल राजा के सिंहासन, चामर आदि का सौंदर्य से परिपूर्ण मार्मिक चित्रण इन्द्रवज्रा छन्द के माध्यम से किया गया हैसौधं द्रुमाः पत्रमिहाऽऽतपत्रं,
सिंहासनं भूमितलं पवित्रम् । पतत्विपत्राणि च चामराणि,
रुतं खगानां खलु बन्दिबोधः ॥" स्त्रग्धरा
___ मद्रास संस्कृत-कॉलेज में समस्या पूर्ति के समय स्रग्धरा छन्द में त्रिनेत्र की आराध्य के रूप में स्तवना करते हुए आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया
दृष्टिर्यस्यास्ति निद्रामपि च गतवती द्रष्टुमर्हेन्न सत्यमेकं नेत्रं विनिद्रं भवति परिचितं किञ्चिदालोकतां तत् । नेत्रे द्वेस्ते विनिद्रे प्रतिपलकमसी मज्जतात्सत्यसिन्धी,
सप्तः सप्तार्कनुन्नारुणकिरणनिमः पातु बिभ्रन् त्रिनेत्रः ॥" मालिनी
उज्जैन, (वि० सं० २०१२) संस्कृत सम्मेलन में महाकवि ने मालिनी छन्द के संगान में आज के नेताओं पर करारा व्यंग्य भी किया है
नपतिरपि जनः स्यात्प्राकृतो मार्गचारी, क्वचिदपि न पुराणैः कल्पना चाप्यकारि । भवति जगति नेता साम्प्रतं नाम निःस्वः, मशकदशनमध्ये हस्तिनः सञ्चरन्ति ॥" यह वास्तविक सत्य है कि प्राचीनकाल में राजा-महाराजा को कवि एवं प्रजा भगवान् की तरह पूजा-अर्चना करती थी। 'संबोधि' की छन्द-योजना
आचार्य एवं उपदेशक दर्शन के दुर्बोध तत्वों को काव्य की भाषा का अवलम्बन कर सरल एवं सुबोध पद्धति में आस्तिक जनता के सामने उपस्थापित करते हैं । संबोधि के महाकवि भी इसी भावना से भावित है।
इस काव्य में लगभग ७०३ श्लोकों में वर्ण्य विषय को निरुपित किया गया है, जिसमें ५ श्लोक (२.१०,११,१४,१५,१९) इन्द्रवज्रा और ४ श्लोक (२.८,९,१२,१३)
खण्ड २०, अंक ४
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