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तभी हो गया होगा जब मनुष्य ने बोलना शुरू किया था। इसमें सत्यांश की गुंजाइश है कि सम्भवतः मानव ने प्रथमत: पद्य का ही प्रयोग किया होगा। प्रारम्भ में उसने जो कुछ भी कहा होगा उसमें उसकी हृदयगत भावनाओं की तीव्रतम अभिव्यक्ति हुई होगी। भावावेश में निकली वाणी में नैसर्गिक लयात्मकता एवं स्वाभाविक अनुकरणनीयता अवश्य विद्यमान रहती है, क्योंकि ऐसे अनेक उदाहरण अभी भी मिलते हैं कि जब व्यक्ति भावावेश में कुछ बोलता है तो उसमें लयात्मकता आ ही जाती है । क्रौंची की दुःखावस्था से भावित बाल्मीकि ने जो कुछ कहा वह छन्द बन गया। बाल्मीकि ने बुद्धि लगाकर छन्द का निर्माण नहीं किया।
मानवीय जाति के आद्य ग्रन्थ ऋग्वेद के अनुशीलन से स्पष्ट हो जाता है कि इस ग्रन्थ के काफी पूर्व भी भारतीय ऋषियों अथवा लोकजीवन में छन्दों का विकास हो चुका था। इसलिए छन्द को वेद पुरुष का चरण कहा गया है ----'छन्दः पादौ तु वेदस्य' (पाणिनि-शिक्षा) अर्थात् वेदों की रचना का आधार छन्द है । अतएव इतना तो निश्चित है कि छन्दों की उत्पत्ति वैदिक काल से पूर्व ही हो चुकी थी। क्योंकि तैत्तिरीय संहिता में उल्लेख है कि सृष्टिकर्ता ने आरम्भ में ही छन्दों की रचना की। आचार्यश्री महाप्रज्ञ की काव्य प्रतिभा
तेरापन्थ धर्मसंघ के दशम आचार्यश्री महाप्रज्ञ भी इसी सरणि में प्रतिष्ठित दिखाई पड़ते हैं। उनकी कवि प्रतिभा इतनी शक्ति-सम्पन्न है कि वह तत्क्षण दिए गए विषयों पर विशिष्ट छन्दों की रचना कर रसिक समुदाय को चकित कर देती है। विक्रम संवत् २०१५ में उन्होंने बनारस संस्कृत महाविद्यालय में राष्ट्रसंघ विषय पर तत्क्षण उपेन्द्रवज्रा छन्द का निर्माण किया---
एको बहुस्यामिति भावनाद्या, संघप्रवृत्तिर्मनुजेषु जाता : बहुप्रकारा: प्रचलन्ति संघाः,
स्याद् राष्ट्रसंघोऽपि महांश्च तत्र ॥२ आचार्यश्री महाप्रज्ञ के काव्यों में अनुष्टुप, मन्दाक्रांता, बसन्ततिलका, उपजाति, उपेन्द्रवज्रा, इन्द्रवज्रा, स्रग्धरा, मालिनी आदि का प्रयोग प्रमुखरूप से किया गया
मन्दाक्रांता
मन्दाक्रांता के प्रयोग में महाकवि सिद्धहस्त हैं । मनोरम भावों की अभिव्यंजना, कल्पना, भावना एवं संगीतमय वातावरण के चित्रण एवं भाव पदार्थों के मूर्त विलास के अवसर पर मन्दाक्रांता का प्रयोग किया जाता है । सम्पूर्ण अश्रुवीणा, जो चंदनबाला की कारुणिक मुक्ति कथा पर आश्रित है, मन्दाक्रांता छन्द में ही निबद्ध है--
श्रद्धे ! मुग्धान् प्रणयसि शिशून् दुग्ध-दिग्धास्यदन्तान्, भद्रानज्ञान् वचसि निरतांस्तर्कबाणौरदिग्धान् ।।
खण्ड २०, अंक ४
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