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________________ अन्यत्र दुर्लभ है । आचार्य हेमचन्द्र ने भी इसे काव्य का महदुपकारक अंग माना __ कवि संसारिक जगत् से प्राप्तज्ञान को अनुभूति का विषय बनाता है। समाधि, साधना और शास्त्राभ्यास के द्वारा उसकी अनुभूति नित्य संवद्धिनी बन जाती है। कभीकभी किसी बाह्य कारणवश वह अपनी अनुभूति को जब शाब्दिक अभिव्यक्ति प्रदान करता है तब वही अभिव्यक्ति छन्दों के नियम में निबद्ध होती है। ऐसा नहीं होता कि छन्द बाहर से लाद दिए जाते हैं, बल्कि वे सहज ही कवि की आंतरिक चेतना से निःसृत शब्दों के साथ ही आते हैं। इतना आवश्यक होता है कि छन्दोमयी वाणी अधिक प्रभावशाली, सशक्त, ललितलावण्यमयी एवं श्रुति-मधुर अभिव्यंजना से सम्पन्न होती है। आदि कवि महर्षि वाल्मीकि के हृदय में क्रौंची के वियोग से जब करुणासागर उफनने लगा तब स्वतः ही अनुष्टुप छन्द का प्रादुर्भाव हुआ-- मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती: समाः। यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी: काममोहितम् ॥ जिस पर न केवल बाह्य जगत् को आश्चर्य हुआ बल्कि स्वयं बाल्मीकि भी आश्चर्यान्वित हुए बिना नहीं रहे । तात्पर्य है कि छन्द भी कवि के अन्तर्जगत् की वह अभिव्यक्ति है जिस पर नियम का बन्धन डाल दिया जाता है। जितनी स्वाभाविक अभिव्यक्तियां लय के सामञ्जस्य से हो सकती हैं उन्हें ही छन्दःशास्त्र में छन्द कहा गया। यह भी कह सकते हैं कि हृदयस्थ भावनाओं की लयात्मक, सजीवात्मक एवं रागात्मक अभिव्यक्ति छन्द है। सुप्रसिद्ध आलोचक पण्डित रामचन्द्रशुक्ल के अनुसार"छन्द वास्तव में बन्धी हुई लय के भिन्न-भिन्न ढांचों का योग है, जो निर्दिष्ट लम्बाई का होता है । लय के उतार-चढ़ाव (मूर्च्छना) के छोटे-छोटे ढांचे ही हैं जो किसी छन्द के भीतर न्यस्त होते हैं। इनका सम्बन्ध जीवन के रक्षणात्मक एवं मनोरंजनात्मक पक्ष से होता है । ये नाद सौन्दर्य पर आधारित होते हैं। जैसे नदी की धारा को रोक कर तेज बनाया जाता है, उसी प्रकार साधारण वाक्य में जो प्रवाह और क्षमता लक्षित नहीं होती वह छन्द-व्यवस्था से पैदा कर ली जाती है। यह स्वाभाविक प्रवृत्ति का कृत्रिम बन्धन है, जिससे प्रवृत्ति-प्रवाह में बाधा उत्पन्न नहीं होती, बल्कि अत्यधिक गतिशीलता एवं अन्यों को भी अपनी धारा में बहा लेने की शक्ति आ जाती है। यही कारण है कि प्राचीनकाल से ही महाकवि रसिक, छहल्ल समुदाय छन्दप्रयोग में अनुरक्त तो है ही। संसार से निर्वेदापन्न आचार्य , समदर्शी साधु एवं ज्ञानी उपदेशक भी अपने या अपने उपजीव्य के जीवन-दर्शन को आस्तिक जनता तक पहुंचाने के लिए छन्दों का आश्रय लेते है। भक्त भी छन्दोमयी वाणी का आश्रय इसलिए लेते हैं कि उनकी वाणी में वह शक्ति आ जाती है जो उनके प्रभु को भी हिला देती छन्दोमयी वाणी की प्राचीनता छन्द का सम्बन्ध मानवीय भाषा से है। ऐसा लगता है कि छन्द का प्रादुर्भाव ३१० तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524582
Book TitleTulsi Prajna 1995 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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