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होता है। यह अभ्यास ही चारित्र है।" योगसूत्र में भी इसी अभ्यास को मूल्यवान् मानते हुए कहा गया है.---"अभ्यास वैराग्याभ्यां तन्निरोधः गीता में भी अभ्यास की महत्ता स्वीकार करते हुए कहा गया है--"अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ।"33
ईश्वर आदर्श तक पहुंचने के लिए चौथा आचार तप है। प्रत्येक व्यक्ति जो प्रगति पथ पर गतिशील है, उसके सामने अनेक कठिनाइयां आती हैं, समस्याएं आती हैं । जब तक उन कठिनाइयों से जूझने की क्षमता नहीं होती, तब तक जहां पहुंचना है वहां पहुंचा नहीं जा सकता। इसके लिए तपस्या आवश्यक है । तपस्या का अर्थ केवल उपवास करना नहीं है । तपस्या का अर्थ है आने वाली प्रतिकूल परिस्थितियों को झेलना उनसे जूझना । अणुव्रत अनुशास्ता श्री तुलसी ने 'कर्म निर्जरण हेतु पौरुष ! तपः' कहकर तप को व्याख्यायित किया है ।५ अर्थात् संचित कर्मों का शोधन करने वाले पराक्रम को तप कहा जाता है । जो तप करता है उसके कर्म संस्कार क्षीण होते हैं । तपस्वी हर प्रकार की परिस्थितियों में सम रहकर कर्म-निर्जरा करता है। योग दर्शन में तपस्या के द्वारा अशुद्धि के दूर होने से शरीर और इन्द्रिय की शुद्धि होती है ऐसा माना गया है । अतः तपस्या ईश्वर जैसे आदर्श तक पहुंचने के लिए आवश्यक है।
पांचवां आचार है वीर्य यानी पराक्रम । पराक्रम के बिना न तपस्या हो सकती है और न ही आचरण हो सकता है, न आस्था का निर्माण हो सकता है और न ही ज्ञान । सबके मूल में पराक्रम है। अतः महाप्रज्ञ का मानना है कि ईश्वर बनने के लिए, ईश्वर जैसे आदर्श को प्राप्त करने के लिए पांचों आचारों को निरन्तर साधना करनी चाहिए।
उपर्युक्त विवरण से हम इस निष्कर्ष पर सहज पहुंच सकते हैं कि आचार्य महाप्रज्ञ के दर्शन में ईश्वर सम्बन्धी दृष्टिकोण जैन दर्शन जैसा ही है। उन्होंने जैन दर्शन की ही ईश्वर सम्बन्धी मान्यता को पुष्ट किया है, समृद्ध किया है। जैन दर्शन में तीर्थंकर और सिद्ध ही ईश्वर (परमात्मा) माने गए हैं।
__ अतः हम कह सकते हैं कि आचार्य महाप्रज्ञ के दर्शन में, दार्शनिक चिंतन में ईश्वर सम्बन्धी मान्यता अन्य भारतीय दार्शनिकों की तरह ही है। वह क्लेश, कर्म, विपाक और आशय से रहित है, वह सर्वज्ञ है, वह परमानन्द रूप है । वह अनन्तज्ञान, दर्शन, चारित्र और पराक्रम से पूर्ण है, वह निस्प्रपंच है। इतना सब होते हुए भी महाप्रज्ञ अन्य भारतीय दार्शनिकों की तरह ईश्वर को जगत्कर्ता, जगन्नियन्ता, जगत्पालक एवं जगत्संहारक नहीं मानते। महाप्रज्ञ जगत्कर्ता के रूप में ईश्वर को मानने की अपेक्षा अपने को निरीश्वरवादी कहा जाना अधिक उपयुक्त समझते हैं। यह विश्व किसने बनाया ? इस प्रश्न के उत्तर में उनका कहना है कि विश्व को बनाने वाला कोई नहीं है । यदि ईश्वरवादी होने का अर्थ ईश्वर को जगत् का अधिष्ठाता मानने से है तो वे ईश्वरवादी नहीं हैं। पर वे ईश्वरवादी हैं क्योंकि वे ईश्वर को अपना आदर्श मानते हैं और यह भी मानते हैं कि ईश्वर सबका आदर्श होना चाहिए बंर २०, अंक ४
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