________________
जिसकी प्राप्ति किसी कर्मकांड से नहीं अपितु आत्मज्ञान से होनी चाहिए। इस प्रकार निष्कर्ष के तौर पर यह कहा जा सकता है कि उनके दर्शन में ईश्वर परमात्मा के ही रूप में है।
संदभ:
१. न्यायकुसुमाञ्जलि, १७ २. श्वेताश्वतर उपनिषद्, ११,१७ ३. वृहदारण्यक उपनिषद्, ११-१-१५ ४. वही, ११-१-१६ ५. गीता, १५।१८ ६. योगसूत्र, ११२४ ७. ७० सू० शा० भा०, २१११३४ ८. श्रीभाष्य, २।११९ ९. वही, १।४।९७ १०. वही, २।३।३९ ११. वही, ९।१।४२ १२. ईश्वर कौन है ? कहां है ? कैसा है ? पृ० ४ १३. वही, पृ० ६ १४. ईश्वर की सत्ता और महत्ता-संपादक हनुमान प्रसाद पौद्दार, पृ० १५ १५. समाधिशतक टीका, ६।२२५॥१५, 'परमात्मा संसारी जीवेभ्यः उत्कृष्ट
आत्मा' । १६. “देहादेवलि जो वसइ देउ अणाइ-अणंतु । केवल-णाण-फुरत-तणु सो परमप्पु
णिभंतु ।" परमात्मप्रकाश १७. "कम्म कलंक विमुक्को परमप्पा भण्णए देवो।" मोक्षपाहुण १८. नियमसार, ७ १९. ज्ञानार्जव अधिकार, २११७॥२२१ २०. 'इस्सरो पभूसामी' एकार्थक कोश, पृ० ३१ २१. फूल और अंगारे, पृ० ४३३ २२. बृहदारण्यक उपनिषद्, २।५।१९ २३. वही, १।४।१० २४. जीवन की पोथी, पृ० ३ २५. वही २६. वही, पृ० १५ २७. छांदोग्य उपनिषद्, ७।१।२-३ २८. ७० सू० शा० भा०, ११११४ २९. मनुस्मृति, ६७४
तुलसी प्रज्ञा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org