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अनंत सुख और अबधि सुख । ज्ञान भी सीमातीत हो, अनन्त हो। शक्ति भी असीम हो। इन सबको मिलाने से जिस आदर्श प्रतिमा का निर्माण होगा वह आदर्श प्रतिमा ईश्वर है । अर्थात् अनंतज्ञान, अनंत शक्ति, अनंत दर्शन और अनत सुख संपन्न ईश्वर है ।२४ आगे यह भी बतलाया है कि हमारा आदर्श हमारा ईश्वर है। उस अवस्था में पहुंचने के लिए हमें पांच आचारों को जीवन में उतरना होगा, जो इस प्रकार हैं.५--
१. ज्ञान आचार २. दर्शन आचार ३. चारित्र आचार ४. तप आचार ५. वीर्य आचार
ईश्वर बनने के लिए आवश्यक है ज्ञान । हमारे ज्ञान का मूल केन्द्र है आत्मज्ञान । जो अपने आपको जानता है वह दूसरों को यथार्थ में जान लेता है। जो अपने आपको नहीं जानता, वह दूसरों को नहीं जानता। आत्मज्ञानी और ईश्वर-ये दो बातें नहीं हैं। जो आत्मज्ञानी है वह ईश्वर है।३९ यूनान के महान् दार्शनिक सुकरात ने भी अपने आपको जानो कहकर इसी सत्य को प्रतिपादित किया था। छांदोग्य उपनिषद् में नारद और सनत्कुमार के संवाद से भी यही स्पष्ट होता है कि आत्मज्ञान ही श्रेष्ठ है। नारद सनत्कुमार से कहते हैं --"मैंने समस्त वेद, इतिहास, पुराण, गणितशास्त्र, तर्कशास्त्र, नीतिशास्त्र, देवविद्या, भूतविद्या, अस्त्रविद्या, मंत्रविद्या, नक्षत्रविद्या, ललितकला आदि सबका अध्ययन किया है किंतु मुझे दुःख है कि इतना ज्ञान मुझे शोकसागर से पार न उतार सका। मैंने गुरुओं से सुना है कि आत्मज्ञान रूपी सेतु से ही शोकसागर को पार किया जा सकता है।""
___इससे स्पष्ट होता है कि शोकातीत (अमरत्व) अवस्था को आत्मज्ञानी ही पा सकता है । आचार्य शंकर ने भी 'मोक्षप्रतिबन्ध निवृत्ति मात्रमेव आत्मज्ञानस्य फलम्' कहकर आत्मज्ञान का गुणगान किया है ।२८
ईश्वर में स्वरूपमय होने के लिए दूसरा आचार दर्शन अर्थात् श्रद्धा है । 'सम्यक् दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः' में दर्शन का सर्वप्रथम चित्रण इसकी महत्ता को सिद्ध करता है । मनु ने भी सम्यक् दर्शन की महत्ता को प्रतिपादित करते हुए कहा है कि
"सम्यक् दर्शन सम्पन्नः कर्मभिर्ननिबध्यते ।
दर्शनेन विहीनस्तु संसारं पतिपद्यते ॥"२९ गीता में उद्धृत तीन मार्गों में भक्ति ही वास्तव में दर्शन है। रामानुज ने भी इसी भक्ति (दर्शन) को मोक्ष साधन के रूप में स्वीकार किया है। महाप्रज्ञ का मानना है कि दर्शन यानी आस्था के बिना ज्ञान सम्भव नहीं है।
केवलज्ञान या आस्था से पार नहीं पाया जा सकता, एतदर्थ अभ्यास आवश्यक
तुलसी प्रज्ञा
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