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________________ अस्तित्व है । अतः अप्रत्यक्ष ईश्वर का अस्तित्व है।". स्वामी दयानन्द के अनुसार जो निराकार, अजन्मा, अनंत, दयालु, न्यायकारी तथा कर्मानुसार जीवों का फलदाता है, आदि लक्षणों से युक्त है उसी को मैं ईश्वर मानता हूं।१४ जैन-दर्शन में भी ईश्वर सम्बन्धी विचार यत्र-तत्र देखने को मिलते हैं। संसारी जीवों में सबसे उत्कृष्ट आत्मा को परमात्मा कहते हैं। जो व्यवहारनय से देहरूपी देवालय में बसता है पर निश्चय से देह से भिन्न है, आराध्य देव स्वरूप है, अनादि अनन्त है, केवल ज्ञान स्वरूप है, निःसन्देह वह अचलित पारिणामिक भाव ही परमात्मा है । ६ कर्मकलंक से रहित आत्मा को परमात्मा (ईश्वर) कहते हैं । निःशेष दोष से जो रहित है और केवलज्ञान परम वैभव से जो युक्त है, वह परमात्मा (ईश्वर) है, इसके विपरीत परमात्मा नहीं । जिस समय विशुद्ध ध्यान के बल से कर्मरूपी ईंधन को भस्म कर देता है. उस समय यह आत्मा ही साक्षात् परमात्मा हो जाता है, यह निश्चय है । ईश्वर को प्रभू, स्वामी भी कहा गया है। उपर्युक्त विवरणों से यह स्पष्ट होता है कि जैनदर्शन में ईश्वर, परमात्मा को ही माना गया है और जगत्कर्ता, जगत् पालक एवं जगत् संहारक रूप से उसे मुक्त रखा। गया है । अत्याधुनिक जैन चिंतक आचार्य महाप्रज्ञ के ग्रंथों का अवलोकन करने से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि उन्होंने ईश्वर को स्वीकार किया है किंतु जैन-चिंतन की कसौटी पर ही। उनके ईश्वर सम्बन्धी विचार अन्य भारतीय दर्शनों से अलग है। महाप्रज्ञ के अनुसार आत्मा (मुक्तात्मा) ही परमात्मा (ईश्वर) है। उनके अन्तहृदय से निःसृत वाणी आत्मा और परमात्मा के इस अद्वैतरूप, को इस प्रकार उद्घाटित करती है "कौन कहता है अरे, ईश्वर मिलेगा साधना से, मैं स्वयं वह, वह स्वयं मैं भावमय आराधना से । - वह नहीं मुझसे विलग है नहीं मैं भी विलग उससे, एक स्वर है एक लय है त्वं अहं का भेद किससे?"२१ अर्थात् आत्मा और ईश्वर अलग नहीं है। त्वं, अहं में भेद नहीं है। उपनिषद् में भी तत् (ब्रह्म) और त्वम् (आत्मा) को एक मानते हुए 'तत्त्वमसि' कहा गया है । 'अयं आत्मा ब्रह्म२२ और 'अहं ब्रह्मास्मि'३३ से भी यही सिद्ध होता है कि आत्मा और ईश्वर में कोई भेद नहीं है । आचार्य महाप्रज्ञ यह मानते हैं कि हमारा आदर्श है अजर और अमर (तत्त्व) न जरा न मौत । सुख भी ऐसा कि जिसमें कोई बाधा न हो। वह सुख नहीं कि जिसमें एक क्षण तो सुख होता है और दूसरे क्षण में दुःख होता है । वैसा सुख नहीं, निर्विघ्न सुख अर्थात् जिसमें निरन्तर सुख का प्रवाह चालू रहता है । यानी खड २०, अंक ४ ३११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524582
Book TitleTulsi Prajna 1995 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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