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सार है ।' गीता में ईश्वर को पुरुषोत्तम कहा गया है। पुरुषोत्तम, परमात्मा, वासुदेव, प्रभु, साक्षी, ब्रह्म, महायोगेश्वर, परमपुरुष, विष्णु आदि इसके पर्यायवाची नाम गीता में यत्र-तत्र प्रयुक्त हैं । क्षर (संसारी जीव) और अक्षर (शांत जीव) से रहित उसे संसार में पुरुषोत्तम नाम से जाना जाता है ----
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः ।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ॥ चार्वाक दर्शन में "लोक व्यवहार सिद्ध राजा' को ईश्वर माना गया है। योग दर्शन में क्लेश कर्म विपाकादि से अछूता पुरुष विशेष ईश्वर कहा गया है। न्यायवैशेषिक दर्शन में ईश्वर को जगन्नियन्ता, जगदीश्वर, जगत्पिता आदि शब्दों से अलंकृत किया गया है। वहां "नित्य ज्ञानाद्यधिकरणमीश्वरः" कहकर ईश्वर लक्षण को व्याख्यायित किया गया है। न्यायदर्शन में ईश्वर को जीवकृत कर्मो का फलदाता भी माना गया है । यहां ईश्वर स्वतंत्र एवं सर्वव्यापी है। अद्वैत वेदांत में ईश्वर को सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापक माना गया है। ईश्वर को आनन्दमय भी कहा गया है।' विशिष्टाद्वैत के प्रवर्तक आचार्य रामानुज के अनुसार ईश्वर एक है। वह चित्त और अचित्त से विशिष्ट है । चित्त और अचित्त आधेय है, ईश्वर आधार है। चित्त और अचित्त प्रकार है, ईश्वर प्रकारी । चित्त और अचित्त नियाम्य है, ईश्वर नियन्ता । चित्त और अचित्त अंश है, ईश्वर अंशी है। इनमें शरीर और शरीरी का सम्बन्ध है। अतः रामानुज के अनुसार ईश्वर आधार, नियन्ता, प्रकारी, अंशी और शरीरी है । पाणिनीय सूत्रों में ईश्वर शब्द का प्रयोग 'अधिरीश्वरे", 'स्वामीश्वराधिपतिः"", 'तस्येश्वर:११ इत्यादि सूत्रों के उदाहरणों में ईश्वर शब्द स्वामी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। वेदमूर्ति, तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य ने ईश्वर को स्वीकार करने के कारणों पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि
"विश्व ब्रह्माण्ड की आश्चर्यजनक गतिविधियों एवं प्राणी जगत् के विलक्षण क्रियाकलापों को देखकर यह विचार उठना स्वाभाविक है कि इस अद्भुत, विलक्षण संसार की निर्मात्री, नियन्ता और पोषक कोई न कोई सर्व समर्थ विचारवान् सत्ता अवश्य है। अपने आस-पास के विलक्षण जगत् को देखकर ही मनीषियों के मन में उसके कर्ता, स्वामी के सम्बन्ध में जिज्ञासा उत्पन्न हुई। चिंतन, मनन, शोध और साधना द्वारा उन्हें ईश्वर के अस्तित्व की अनुभूति हुई। न केवल अनुभूति हुई वरन उस सर्वशक्तिमान सत्ता के संघर्ष, सान्निध्य से लाभ उठाने की सम्भावना भी साकार हई।१२
उनके शब्दों में ईश्वर दिखलाई नहीं देता इसलिए उसे न माना जाए यह तर्क नितांत सारहीन है । अनेक वस्तुएं ऐसी हैं जो दिखलाई नहीं पड़ती परन्तु फिर भी अनुभव की जाती हैं । उदाहणत: अपने नेत्र में अंजन अपने को कहां दिखाई देता है ? सरोवर में बादलों से गिरे जल बिंदुओं को कौन देख पाता है ? यद्यपि तारकगणों की सत्ता दिन में होती है परन्तु सूर्य के प्रकाश से अभिभूत होने के कारण वे कहां दृष्टिगोचर होते हैं ? आकाश में छाये जलकण दिखाई देते हैं क्या ? जल में घुला नमक तथा दूध में अन्तर्निहित मक्खन क्या दिखलाई पड़ता है ? फिर भी इन सबका
तुलसी प्रज्ञा
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