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आचार्य महाप्रज्ञ के चिंतन में 'ईश्वर'
आनंदप्रकाश त्रिपाठी 'रत्नेश'
__ संसाररूपी रंगमंच पर जब से मानव का पदार्पण हुआ है तब से इसकी विविधता, विचित्रता एवं बहुरूपता उसके अन्तर्मन को उद्वेलित करती रही है। इस आश्चर्यजनक संसार पर दृष्टिपात कर अकस्मात् उसके मुख से यह वाणी प्रस्फुटित होने लगती है कि अहो ! कितना अद्भुत है यह संसार ? इसकी विचित्रता, विरूपता एवं व्यवस्था का निदर्शन कैसे ? इस अनोखे आदर्श भरे चित्र का चित्रकार कौन ? किस सर्वश्रेष्ठ तूलिका से इसका रेखांकन संभव हुआ ? किस मकसद एवं प्रयोजन से इसे चित्रित करने का आभास हुआ है ? कहीं यह स्वतः उद्भूत एवं स्वत: निर्गमित तो नहीं ? उसका यह चिंतन कभी सृष्टि को अनादि मानता है तो कभी अनादि सत्ता द्वारा रचित । भारतीय दर्शन की कुछ दार्शनिक परम्परा जहां इस रूपहले संसार का कर्ता, अनादि सत्ता ईश्वर को स्वीकार करती है वहीं अत्याधुनिक जैन दार्शनिक आचार्य महाप्रज्ञ सृष्टि को अनादि कहकर ऐसे किसी ईश्वर की जरूरत महसूस नहीं करते । महाप्रज्ञ के दार्शनिक विचार में ईश्वर के स्वरूप को रूपायित करने के पूर्व आवश्यक प्रतीत होता है कि विभिन्न भारतीय दर्शन-परम्परा में स्वीकृत ईश्वर के स्वरूप पर दृष्टिपात कर लें।
ईश्वर विचार प्रारम्भ से ही सभी दर्शनों का प्रमुख विषय रहा है। भारतीय दर्शन को ईश्वर केन्द्रित कहा जाना कोई अतिशयोक्तिपूर्ण कथन नहीं होगा। चूंकि अधिकांश भारतीय दर्शनों के प्रणेता ऋषि, महर्षि एवं संत शिरोमणि हुए हैं। अतः उनके चिन्तन का केन्द्र बिन्दु ऐसे किसी परमतत्त्व का होना आश्चर्यजनक नहीं है। धर्म, अर्थ काम, मोक्ष --इन चार प्रकार के पुरुषार्थों में से किसी एक भी पुरुषार्थ को स्वीकार करने वालों ने किसी न किसी रूप में परमात्मा को अवश्य स्वीकार किया है। इसमें किसी भी दार्शनिक को संदेह नहीं है।'
उपनिषदों में अपरब्रह्म, सगुण ब्रह्म, ईश्वर आदि पर्यायवाची रूप में प्रयुक्त हुए हैं। श्वेताश्वतर उपनिषद में ईश्वर की सर्वव्यापकता पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि ईश्वर अग्नि, जल, वनस्पति, वृक्ष आदि विश्व के कण-कण में व्याप्त हैं। इसी उपनिषद में ईश्वर को विश्व के परे स्वर्ग में एकाकी वृक्ष की भांति अविचल मानकर अन्तर्यामी के साथ-साथ अतीन्द्रिय भी स्वीकार किया गया है। बृहदारण्यक उपनिषद् में कहा गया है कि जिस प्रकार चक्र की अरायें उसके केन्द्र या नाभि में संग्रहीत रहती है उसी प्रकार सभी देवता, सभी लोक, सभी जीवात्माएं उसी में केन्द्रित हैं।' ईश्वर सत्य का सत्य है, आत्मा की आत्मा है। वह परम सत्य है । वह सर्वस्व और सबका
खण्ड २०, बंक ४
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