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पारिवारिक जीवन में अनेकांत दृष्टि का उपयोग
समाज की विभिन्न इकाइयों में परिवार एक महत्त्वपूर्ण इकाई है । अनेकांत दृष्टि का प्रयोग परिवारिक कलह का शमन करने में सहायक हो सकता है। पारिवारिक क्षेत्र में इस पद्धति का उपयोग परस्पर परिवारों में और परिवार के सदस्यों में संघर्ष टालकर शान्तिपूर्ण वातावरण का निर्माण करता है। सामान्यत: पारिवारिक जीवन में संघर्ष के दो केन्द्र होते हैं। पिता-पुत्र तथा सास-बहू । इन दोनों विवादों में मूल कारण दोनों का दृष्टिभेद है । पिता जिस परिवेश में बड़ा हुआ, उन्हीं संस्कारों के आधार पर पुत्र का जीवन ढालना चाहता है । जिस मान्यता को स्वयं मानकर बैठा है, उन्हीं मान्यताओं को दूसरे से मनवाना चाहता है । पिता की दृष्टि अनुभव प्रधान होती है जबकि पुत्र की तर्क-प्रधान । यही स्थिति सास-बहू में होती है । सास यह अपेक्षा करती है कि बहू ऐसा जीवन जिये जैसा उसने स्वयं बहू के रूप में जिया था, जबकि बहू अपने यूग के अनुरूप और अपने मात-पक्ष के संस्कारों से प्रभावित जीवन जीना चाहती है । मात्र इतना ही नहीं, उसकी अपेक्षा होती है कि वह उतना ही स्वतंत्र जीवन जीए जैसा वह अपने माता-पिता के पास जीती थी। इसके विपरीत ससुराल पक्ष उससे एक अनुशासित जीवन की अपेक्षा करता है। यही सब विवाद के कारण बनते हैं। इसमें जब तक सहिष्णु-दृष्टि और दूसरे की स्थिति को समझने का प्रयास नहीं किया जायेगा, तब तक संघर्ष समाप्त नहीं हो सकता। __सहिष्णुता का अर्थ है अपने सवेंगों पर नियन्त्रण होना । जिसका अपने संवेगों पर नियन्त्रण होगा वही शक्तिशाली हो सकेगा। संवेगों पर नियंत्रण के लिए सहिष्णुता की साधना का अभ्यास अत्यन्त अपेक्षित है, तभी उसका उपयोग व्यावहारिक क्षेत्र में किया जा सकता है । दूसरे के विचारों के प्रति सहिष्णु रहे, मात्र अपने दृष्टि-कोण के प्रति आग्रह न रहे इसके लिए सहिष्णुता का विकास अपेक्षित है, जैसे :
१. भावात्मक संवेगों पर नियंत्रण पाना, २. दूसरों के विचारों को भी समझना,
३. अहं व गर्व की भावना को महत्त्व न देना । धार्मिक क्षेत्र में अनेकांत का योगदान
____ अनेकांत दृष्टिकोण का अपयोग धार्मिक क्षेत्र में धार्मिक सहिष्णुता व सर्व-धर्म समभाव के लिए भी किया जा सकता है ।
विश्व के विभिन्न धर्माचार्यों ने अपने युग की तात्कालिक परिस्थितियों से प्रभावित होकर अपने सिद्धांतों एवं साधना के ब्राह्य नियमों का प्रतिपादन किया । किन्तु मनुष्य की अपने धर्माचार्यों के प्रति ममता और उसके अपने मन में व्याप्त आग्रह और अहंकार ने उसे अपने धर्म या साधना पद्धति को ही एकमात्र एवं अन्तिम सत्य मानने को बाध्य किया । फलस्वरूप विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों के बीच साम्प्रदायिक वैमनस्य का प्रारम्भ हुआ। __इतिहास साक्षी है कि धार्मिक असहिष्णुता ने विश्व में जघन्य दुष्कृत्य करायें ।
खण्ड २०, अंक ४
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