________________
संग्रह और व्यवहार नय
संग्रहनय केवल सामान्य अंश का ग्रहण करता है और व्यवहारनय केवल विशेष अंश का। ये दोनों क्रमश: अभेद और भेद को मुख्य मानकर इनकी वास्तविकता का समर्थन करने वाली दृष्टियां हैं । ऋजुसूत्र नय
यह वर्तमान परक दृष्टि है । यह अतीत और भविष्य की वास्तविक सत्ता स्वीकार नहीं करती । अर्थक्रिया में समर्थ होना और प्रमाण का विषय बनना, ये बातें वार्तमानिक वस्तु में ही मिलती है।" शब्द नय
शब्दनय भिन्न-भिन्न लिंग, वचन आदि युक्त शब्द के भिन्न-भिन्न अर्थ स्वीकार करता है । यह शब्द, रूप और उसके अर्थ का नियामक है ।१४ समभिरुढ़नय
एक वस्तु का दूसरी वस्तु में संक्रमण नहीं होता। प्रत्येक वस्तु अपने स्वरूप में निष्ठ होती है । समभिरुढ़ का अभिप्राय यह है कि जो वस्तु जहां आरुढ़ है, उसका वहीं प्रयोग करना चाहिए । यह दृष्टि वैज्ञानिक विश्लेषण के लिए बहुत उपयोगी है। नियामकता या सच्चाई ही इसकी मौलिकता है । एवंभूतनय
एवंभूतनय शब्द के व्युत्पत्तिपरक अर्थ पर बल देकर, उस समय उस विशिष्ट लक्षण से युक्त होने पर ही उस पदार्थ को उस शब्द से वाच्य मानता है। जैसे अध्ययन कराते समय ही अध्यापक को अध्यापक कहना, अन्यथा नहीं।
जब किसी वस्तुतत्व का अर्थ निश्चित करने में हम इन दृष्टिकोणों की उपेक्षा कर देते हैं तो हमारा ज्ञान भ्रान्त और विरोधी बन जाता हैं, किन्तु जब हम इन विविध पक्षों पर ध्यान देते हैं तो वही ज्ञान समन्वयात्मक और यथार्थ बन जाता है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। अनन्त धर्मात्मक वस्तु या अनेकांत का प्रतिपादन करने वाले साधन या उपाय को स्याद्ववाद कहा जाता
स्याद्वाद
अनेकांतवाद और स्याद्ववाद को यद्यपि पर्यायवादी मान लिया जाता है, किन्तु दोनों में अन्तर है । अनेकांत एक व्यापक विचार पद्धति है और स्याद्वाद उस विचार पद्धति की अभिध्यक्ति का निर्दोष मार्ग है। अनेकान्तवाद दर्शन है और स्याद्ववाद उसकी अभिव्यक्ति का ढंग है । स्याद्वाद अनेकांत का एक विधायी पहलू है। 'स्यात्' शब्द 'अपेक्षा' का या' कथन की। 'आंशिक सत्यता' का सूचक है । अनेकांतवाद के द्वारा वस्तुतत्व के जिन अनन्त धर्मो का का बोध होता है, उनमें से किसी एक धर्म को दूसरे धर्मों का प्रतिषेध किये बिना प्रस्तुत करना ही स्याद्ववाद है। स्याद्ववाद अपेक्षा का
खण्ड २०, अंक ४
३०३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org