________________
माना है। दूसरे शब्दों में वस्तुतत्व की स्वभाव दशा को निश्चय नय और विभाव दशा को व्यवहार नय का विषय माना गया है। वस्तुतत्व के युक्ति-सिद्ध बौद्धिक स्वरूप को निश्चय नय और व्यवहार नय वस्तुतत्व के ऐन्द्रिक या प्रतीकात्मक स्वरूप का विवेचन करता है।
सत्व उतना ही है जितना वह हमें इन्द्रियों के माध्यम से प्रतीत होता है और न उतना ही जितना कि बुद्धि उसके स्वरूप का निश्चय कर पाती है। वस्तुत: नयों का यह विवेचन न केवल जैन-दर्शन में ही स्वीकृत रहा है अपितु अनेक दर्शनों में उसे स्वीकृत किया गया हैं । बौद्ध दर्शन में इसे नैय्यार्थ सूत्र और नीतार्थ सूत्र के रूप में, विज्ञानवाद में परिनिष्पन्न और परतंत्र के रूप में, शून्यवाद में लोक-स्मृति सत्य और परमार्थ सत्य के रूप में, तथा शंकर के दर्शन में परमार्थ और व्यवहार के रूप में इसे प्रस्तुत किया गया है। इसी प्रकार पाश्चात्य दार्शनिकों में 'हेरोक्लाइटस' ने केटो और ऐने के रूप में, 'परमेनीडीज' ने मत और सत्य के रूप में, 'सुकरात' ने जगत और आकार के रूप में, 'प्लेटो' ने संवेदन और प्रत्यय के रूप में, 'स्पिनोजा' ने पर्याय और द्रव्य के रूप में, 'कांट' ने प्रपंच और वस्तुतत्व के रूप में, 'हीगल' ने विपर्यय और निरपेक्ष के रूप में तथा 'ब्रेडले' ने आभास और सत् के रूप में, प्रकारान्तर से इसी दृष्टिकोण को स्पष्ट किया है। भले ही इनमें नामों की भिन्नता रही हुई हो, किन्तु उमका मन्तव्य वही है जो कि जैन दर्शन में निश्चय और व्यवहार के रूप में प्रकट किया गया है।" सप्त नय - जैन दार्शनिकों ने प्रकारान्तर से सप्त नय भी माने हैं, वे हैं :
(१) नैगसनय (२) संग्रहनय (३) व्यवहारनय (४) ऋजुसूत्रनय (५) शब्दनय (६) समभिरुढ़नय (७) एवंभूतनय
वस्तुतः ये सातों नय वस्तुतत्व के स्वरूप प्रतिपादन की विविध दृष्टियां ही हैं। जैसे नैगमनय वस्तुतत्व के सामान्य और विशेष पक्षों पर समान रूप से बल देता है, संग्रहनय वस्तु के सामान्य पक्ष या अभेद पक्ष, व्यवहारनय उसके विशेष या भेद पक्ष पर बल देता है। इसी प्रकार शेष चार नय भी शब्दों के अर्थ निश्चय करने में विविध दृष्टि-बिन्दुओं का आश्रय लेते हैं ।१४ सप्तनय की और अधिक विस्तार से निम्न चर्चा की गई हैं : नैगमनय
सामान्य और विशेष दोनों इसके विषय हैं । ये दोनों पदार्थ के धर्म हैं । नैगमनय दोनों की एकाश्रयता का साधक है तथा बोध कराने के अनेक मार्गों का स्पर्श करने वाला है। नैगमनय जैन दर्शन की अनेकान्त दृष्टि का प्रतीक है ।५.
३०२
तुलसी प्रज्ञा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org