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________________ विरोधी युगल होना चाहिए । समूची प्रकृति में, व्यवस्था में विरोधी युगलों का अस्तित्व है। हमारा जीवन विरोधी युगलों के आधार पर चलता है। शरीर की रचना, प्रकृति की रचना, परमाणु की रचना या विद्युत की रचना सब में विरोधी तत्व काम कर रहे हैं । अनेकांत का मूल आधार है---विरोधी के अस्तित्व की स्वीकृति, प्रतिपक्ष की स्वीकृति । अनेकांत दृष्टि का मुख्य कार्य एकांत या आग्रह बुद्धि का निरसन कर अनाग्रही दृष्टि को प्रकट करना है। अनेकांत दर्शन यह बतलाता है कि वस्तु में सामान्यत: विभिन्न अपेक्षाओं से अनन्त धर्म रहते हैं। किन्तु प्रत्येक धर्म अपने प्रतिपक्षी धर्म के साथ वस्तु में रहता है, यह प्रतिपादन करना ही अनेकांत दर्शन का विशेष प्रयोजन है।" ___ यथार्थ में अनेकांत पूर्ण दर्शी है और एकांत अपूर्णदर्शी है । एकांत मिथ्या अभिनिवेश के कारण एक अंश को ही पूर्ण सत्य मान लेना विवाद की जड़ है । इसी कारण एक मत का दूसरे मत से विरोध हो जाता है। लेकिन अनेकांत उस विरोध का परिहार कर उनका समन्वय करता है । एकांत दृष्टि कहती है कि तत्व ऐसा 'ही' है और अनेकांत दृष्टि कहती है कि तत्त्व ऐसा 'भी' है । यथार्थ में सारे झगड़े या विवाद 'ही' के आग्रह से उत्पन्न होते हैं । विवाद वस्तु में नहीं अपितु देखने वाले की की दृष्टि में नयवाद नयवाद अनेकांत का ही प्रारम्भिक रूप है। जिज्ञासा या सत्याभीप्सा अपूर्ण मानव की एक सहज वृत्ति है । अपनी इस जिज्ञासा की सन्तुष्टि के लिए मानव के पास दो साधन है १. इन्द्रियां २. तर्क-बुद्धि मानव अपने सीमित साधनों के द्वारा तत्त्वों को जानने का प्रयास करता है । मानव मन कभी भी इन्द्रियानुभूति या प्रतीति से सन्तुष्ट नहीं होता है। वह उस प्रतीति के पीछे भी झांकना चाहता है। वस्तु तत्त्व के दृश्य स्वरूप से सन्तुष्ट न होकर उसके सारतत्त्व को समझने का प्रयास करना यह मानवीय बुद्धि का नैसर्गिक गुण है। ज्ञान प्राप्ति के इन दो साधनों के आधार पर मानवीय ज्ञान भी विविध होता है। एक वह जो इन्दियानुभूति या प्रतीति है और दूसरा वह जिसका निश्चय तर्क-बुद्धि करती है। जिन दार्शनिकों ने ज्ञान की इन दो विधाओं में से किसी एक की अवहेलना की उनका ज्ञान 'सत्य' की एक सर्वांगीण व्याख्या दे पाने में असमर्थ रहा। जैन-दर्शन के अनुसार इन्द्रियानुभूति बुद्धि और वाणी सभी अपनी सीमितताओं के कारण अनन्त या पूर्ण के एकांश को ही ग्रहण या प्रकट कर पाती है, यही एकांश का बोध नय कहलाता है । नयों के द्विविध और सप्तविध विवेचन बह-प्रचलित है : निश्चय और व्यवहार नय आचार्य अमृतचन्द्र ने निश्चय नय को आत्माश्रित और व्यवहार नय को पराश्रित खण्ड २०, अंक ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524582
Book TitleTulsi Prajna 1995 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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