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विधायक दृष्टि लेकर आये । इस विचार संकुलता के युग में उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है कि आग्रह, मतान्धता या एकांत ही मिथ्यात्व है।'
सूत्रकृतांग में उल्लेख है कि जो अपने मत की प्रशंसा और दूसरे के मत की निन्दा करने में ही अपना पाण्डित्य दिखाते हैं, वो एकान्तवादी संसार चक्र में भटकते रहते हैं। भगवान महावीर ने बताया कि आग्रह ही सत्य का बाधक तत्व है। आग्रह राग है और जहां राग है वहां सम्पूर्ण सत्य का दर्शन संभव नहीं। सम्पूर्ण सत्य का ज्ञान केवल अनाग्रही को ही हो सकता है । आग्रह युक्त या मतांधदृष्टि उसे देख नहीं पाती है और यदि देखती है तो उसे अपने दृष्टिराग से दूषित करके ही। आग्रह या दृष्टिराग से वही सत्य असत्य बन जाता है, अनाग्रह या सम्यक् दृष्टि से वही सत्य सत्य के रूप में प्रकट हो जाता है । दूसरों के सत्यों को झुठलाकर सत्य को नहीं पाया जा सकता । सत्य विवाद से नही विवाद के समन्वय से प्रकट होता है। दार्शनिक पृष्ठभूमि
पूर्ण ज्ञान सीमित क्षमताओं से युक्त मानव प्राणी के लिए सदैव ही एक जटिल प्रश्न रहा है । अपूर्ण के द्वारा पूर्ण को जानने के समस्त प्रयास आंशिक सत्य के ज्ञान से अधिक आगे नहीं जा पाये हैं, और जब इसी आंशिक सत्य को पूर्ण सत्य मान लिया जाता है तो विवाद एवं वैचारिक संघर्षों का जन्म हो जाता है । सत्य न केवल उतना है जितना कि हम जानते हैं, अपितु वह एक व्यापक पूर्णता है। उसे तर्क, विचार, बुद्धि और वाणी का विषय नहीं बनाया जा सकता, वह तो इनसे परे है। कठोपनिषद् में उसे बुद्धि और तर्क से परे माना गया है। मुण्डकोपनिषद् में उसे मेधा और श्रुति से अगम्य कहकर इसी तथ्य को स्पष्ट किया गया है। आचारांग में भी उसे शब्द, वाणी और तर्क से अगोचर कहा गया है। इसी प्राकर के भाव बोद्ध विचारक चन्द्रकीर्ति ने भी प्रकट किये हैं। पाश्चात्य विचारक लॉक, कांट, वेडले और वर्गसा आदि ने भी सत्य को तर्क या विचार की कोटी से परे माना है।" ___वस्तुतः हमारी ऐन्द्रीय-क्षमता, तर्कबुद्धि, विचार-क्षमता, वाणी और भाषा इतनी अपूर्ण है कि वे सम्पूर्ण सत्य की अभिव्यक्ति में सक्षम नहीं है। मानव-बुद्धि सम्पूर्ण सत्य को नहीं केवल उसके एकांश को ग्रहण कर सकती है। मात्र इतना ही नहीं, वस्तुतत्व में परस्पर विरोधी गुण भी एक साथ रहते हैं। और ऐसी स्थिति में दो भिन्न दृष्टियों में परस्पर विरोधी तथ्य भी एक साथ सत्य हो सकते हैं। समयसार में इसी का उल्लेख करते हुए बताया गया है कि 'जो वस्तु तत्स्वरूप है, वही अतत्स्वरूप भी है, जो वस्तु एक है वही अनेक भी है, जो वस्तु सत् है वही असत् भी है, तथा जो वस्तु नित्य है वही अनित्य भी है । इस कारण एक ही वस्तु के वस्तुत्व के कारणभूत परस्पर विरोधी धर्मयुगलों का प्रकाशन अनेकांत है।
देवागम-अष्टशती कारिका में इसी को प्रतिपादित करते हुए कहा गया है कि वस्तु सर्वथा सत् ही है अथवा असत् ही है नित्य ही है अथवा अनित्य ही है। इस प्रकार सर्वथा एकांत के निराकरण करने का नाम अनेकांत है। अनेकांत का एक सूत्र है----सह-प्रतिपक्ष । केवल युगल ही पर्याप्त नहीं है,
तुलसी प्रज्ञा
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