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________________ अनेकान्तवाद व नयवाद का दार्शनिक स्वरूप अनिल कुमार धर धर्म और दर्शन अनादिकाल से चले आये हैं । इस धरातल पर अनेक धर्मों और दर्शनों का अस्तित्व सदा से रहा है। धर्म और दर्शन का अस्तित्व परमावश्यक भी है क्योंकि धर्म मनुष्य को नैतिक बनाता है और दर्शन विचारवान । भारत में जैनधर्म, बौद्धधर्म, वैदिक आदि विविध धर्मों का तथा इनके विविध दर्शनों का सद्भाव दृष्टिगोचर होता है। भारतीय दर्शन दो भागों में विभक्त हैवैदिक दर्शन और अवैदिक दर्शन । वैदिक दर्शन ६ हैं --- सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदान्त । अवैदिक दर्शन तीन हैं-जैन, बौद्ध और चार्वाक । प्रत्येक दर्शन के अपने-अपने विशेष सिद्धान्त हैं। जनदर्शन में अनेकान्त दर्शन अपना विशिष्ट स्थान रखता है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि भगवान महावीर के पूर्व भारत भूमि पर वैचारिक संघर्ष एवं दार्शनिक विवाद अपनी चरम सीमा पर था । जैनागमों के अनुसार उस समय ३६३ और बौद्धागमों के अनुसार ६३ दार्शनिक मत प्रचलित थे । जैन परम्परा में इन ३६३ दार्शनिक सम्प्रदायों को चार वर्गों में वर्गीकृत किया गया था :--- १. क्रियावादी -जो आत्मा को पुण्य-पाप आदि का कर्ता, भोक्ता मानते थे। २. अक्रियावादी -- जो आत्मा को अकर्ता मानते थे, ३. विनयवादी ---जो आचार नियमों पर अधिक बल देते थे, ४. अज्ञानवादी - इनकी मान्यता यह थी कि ज्ञान से विवाद उत्पन्न होते हैं, अत. अधिक जिज्ञासा में न उतर कर विवाद-पराङ्मुख रहना तथा अज्ञान को ही परम श्रेय मानना चाहिए। वैचारिक आग्रह और मतान्धता के इस युग में जो दो महापुरुष आये, वे थेभगवान् महावीर और भगवान् बुद्ध । बुद्ध ने इस आग्रह एवं मतान्धता से ऊपर उठने के लिए विवाद-पराङ मुखता को अपनाया, किन्तु उससे मानवीय जिज्ञासा का सम्यक् समाधान नहीं हो पाता था। जबकि उस युग का जनमानस एक विधायक हल की अपेक्षा कर रहा था । दार्शनिक विचारों की इस संकुलता में वह सत्य को देखना चाहता था। वह जानना चाहता था कि इन विविध मतवादों में सत्य कहां और किस रूप में उपस्थित है। क्योंकि उसके सन्मुख प्रत्येक मतवाद एक दूसरे के खण्डन में ही अपनी विद्वता की इतिश्री मान रहा था। ऐसी परिस्थिति में भगवान् महावीर विरोध समन्वय की एक खण्ड २०, अंक ४ २९९ Jain Education. International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524582
Book TitleTulsi Prajna 1995 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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