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शरीर वालों (जीवन्मुक्तों) की होती है। इनमें से ( यह चौथी कर्मजाति) योगियों के फल संन्यास के कारण पुण्यरहित और पापात्मक क्रियाओं को न अपनाने के कारण पापरहित होती है । अन्य समस्त जीवों की कर्मजाति तो पूर्वोक्त तीन प्रकार की होती है । ये तीन प्रकार कौन हैं ? १. शुक्ल (पुण्य), २. कृष्ण (पाप) और ३. शुक्ल कृष्ण ( पाप और पुण्य दोनों से युक्त ) ।
लेश्या हमारा एक दर्पण है, जिसमें व्यक्ति अपने आपको देख सकता है, अपने विचारों एवं भावनाओं को देख सकता है । सुकरात ने स्वयं के सम्बन्ध में कहा कि " मैं शीशे में यह देखता हूं - मेरा चेहरा भद्दा है, पर मुझसे ऐसा कोई काम न हो जाये जिससे मेरा चेहरा और अधिक भद्दा बन जाय ।' उक्त प्रसंग उन्होंने स्वयं उन पर हंस रहे शिष्यों को सुनाया था जिससे कि शीशा देखकर भी वे कुछ सीख सकें । लेश्या से क्या तात्पर्य है, यह जान लेने के बाद अब विचार करना है कि लेश्या ज्ञान से लाभ क्या है ।
यल्लेश्यो म्रियते लोकस्तल्लेश्यश्चोपपद्यते
तेन प्रतिपलं मेघ ! जागरूकत्वमर्हसि ।"
भगवान महावीर मेघकुमार को यह उपदेश देते हुए कहते हैं :
यह जीव जिस लेश्या ( भाव धारा) में मरता है, उसी लेश्या ( उसी भावधारा की अनुरूप गति) में उत्पन्न होता है । इसलिए हे मेघ ! तू प्रतिपल जागरूक रह । जागरूकता के लिए योगिक क्रिया का सम्यक् ज्ञान व आचरण आवश्यक है । पातञ्जल योग के अनुसार योग के मुख्य आठ विभाग हैं यथा यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गनि' । यहां प्रसंगवश योग के आठों अंगों की व्याख्या अपेक्षित नहीं है अतः हम ध्यान पर ही विचार केन्द्रित करेंगे । ध्यान के पक्ष में लेश्या ध्यान भी होता है ।
लेश्या वानस्पतिक जीवों में भी होती है । वह पशु-पक्षी तथा मनुष्य में भी होती है । इसलिए आभामण्डल भी प्राणिमात्र में होता है ।' ध्यान और लेश्या में सम्बन्ध है | ध्यान ३ प्रकार का है :
१. आर्त्तध्यान कृष्ण, नील और कापोत लेश्या की भावधारा, कृष्ण नील और कापीत वर्ण की प्रधानता वाला आभामण्डल ।
२. रौद्र ध्यान - कृष्ण, नील और कापोत लेश्या की प्रकृष्ट भावधारा, कृष्ण, नील और कापोत वर्ण की प्रधानता वाला आभामण्डल ।
३. धर्मध्यान तेजस्, पद्म और शुक्ल लेश्या की भावधारा, तेजस्, पद्म और शुक्ल वर्ण की प्रधानता वाला आभामण्डल ।
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शुक्ल और परमशुक्ल लेश्या की भावधारा, शुक्ल वर्ण का मनोज्ञतम आभामण्डल | भावधाराएं चैतन्य केन्द्र को प्रभावित करती है। चैतन्य केन्द्रों का यदि प्रयोग नहीं होता तो वे सुसुप्त रहते हैं । प्रायः हम यह देखते हैं कि शरीर के जिस चेतना केन्द्र का जितना प्रयोग होता है वह उतना ही सक्रिय रूप धारण करता है । इसलिए चैतन्य केन्द्रों की जानकारी रखना आवश्यक है । हमारे शरीर में अनेक चैतन्य केन्द्र
खण्ड २०, अंक ४
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