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नील लेश्या आदि-आदि ।
किण्हा नीला य काऊ य, तेऊ पम्हा तहेव य
सुक्कलेसा य छट्ठा य, नामाइं तु जहक्कम अर्थात् कृष्ण लेश्या, नील लेश्या, कापोत लेश्या, तेजो लेश्या, पद्म लेश्या और शुक्ल लेश्या । पहली तीन लेश्याएं अप्रशस्त लेश्याएं हैं, अन्तिम तीन प्रशस्त । प्रथम तीन के वर्ण आदि चारों गुण अशुभ होते हैं। उत्तरवर्ती तीन लेश्याओं के वर्ण आदि चारों गुण शुभ होते हैं, इसलिए वे प्रशस्त होती हैं। खान-पान, स्थान और बाहरी वातावरण एवं वायुमण्डल का शरीर और मन पर प्रभाव होता है शरीर और मन दोनों परस्परापेक्ष है । इनमें एक दूसरे की क्रिया का एक दूसरे पर असर हुए बिना नहीं रहता। जिस लेश्या के द्रव्य ग्रहण किए जाते हैं, उसी लेश्या का परिणाम हो जाता है । व्यावहारिक जगत में भी यही बात मिलती है । प्राकृतिक चिकित्सा-प्रणाली में मानस रोगी को सुधारने के लिए विभिन्न रंगों की किरणों का या विभिन्न रंगों की बोतलों से सिद्ध जल का प्रयोग किया जाता है । योग-प्रणाली में पृथ्वी, जल आदि के तत्त्वों के रंगों के परिवर्तन के अनुसार मानस परिवर्तन का क्रम बतलाया गया है।
द्रव्य लेश्या की सहायता से होने वाले आत्मा के परिणाम की उत्पत्ति दो प्रकार से होती है : मोहकर्म के उदय से तथा उसके उपशम क्षय या क्षयोपशम से । औदयिक भाव लेश्याएं अशुभ, अप्रशस्त होती है और औपशमिक, क्षायिक या क्षयोपशमिक लेश्याएं शुभ, प्रशस्त होती है।
'तओ दुग्गइ गामिणिओ, तओ सुग्गइगामिणिओ" तदनुसार पहली तीन लेश्याएं अशुभ अध्यवसाय वाली हैं इसलिए वे दुर्गति की हेतु हैं । उत्तरवर्ती तीन लेश्याएं भले अध्यवसाय वाली हैं, इसलिए वे सुगति की हेतु हैं। 'उत्तराध्ययन सूत्र' में इन्हें अधर्म लेश्या और धर्म लेश्या भी कहा गया है।
पातञ्जल योग में वर्णित कैवल्य पाद में चतुर्विध कर्म का व्याख्यान किया गया है जो लेश्याओं के अध्ययन में विशेष दृष्टि देता है : 'चतुष्पदी खल्वियं कर्मजाति:-- कृष्णा, शुक्ल कृष्णा, शुक्ला चेति । तत्र कृष्णा दुरात्मनाम । शुक्लकृष्णा बहिःसाधनसाध्या, तत्र परपीडानुग्रहद्वारेणव कर्माशयप्रचयः । शुक्ला तपःस्वाध्यायध्यानवताम् । सा हि केवले मनस्यायत्तत्वाद् बहिःसाधनाधीना न परान्पीडयित्वा भवति । अशुक्लाकृष्णा संन्यासिनां क्षीण क्लेशानां चरमदेहानामिति । तत्राशुक्लं योगिनः एव फलसंन्यासादकृष्ण चानुपादानात् । इतरेषां तु भूतानां पूर्वमेव त्रिविधमिति" ।'
कर्मजाति चार प्रकार की होती है- पापात्मक, पुण्यपापात्मक, पुण्यात्मक और पुण्यपापरहित । उनमें से दुरात्माओं की कर्मजाति पापात्मक होती हैं। बाह्यक्रियाओं से सम्पादित कर्मजाति पापात्मक होती है, उसमें दूसरों की पीड़ा और (उन पर) कृपा के द्वारा (पाप और पुण्य-दोनों प्रकार के) कर्म संस्कारों का संग्रह होता है । तपस्या, स्वाध्याय और ध्यान करने वालों की कर्मजाति पुण्यात्मक होती है, क्योंकि वह मन के अधीन होने के कारण दूसरों को पीड़ा पहुंचाए बिना आन्तरिक साधन से सम्पादित होती है । पापपुण्यरहित कर्मजाति क्षीणक्लेश संन्यासियों (योगियों) अर्थात् अन्तिम
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तुलसी प्रज्ञा
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