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इत्यालोचनतत्परा मुनिपदे रक्ताबभूवाधिकं, स्वात्मानं विशदीकरोति सततं राजर्षिरप्यात्मना । मन्त्री तन्त्रविधि विधाय विधिवज्जग्राह दीक्षां शुभां, सन्तो यन्ति यथेप्सितं सुविदितामात्मानुभूति पराम् ।।४ चन्दनबाला काव्य के प्रारम्भ से ही मोक्ष मार्ग में आसक्त दिखाई पड़ती है
जाता यस्मिन् सपदि विफला हावभावा वसानां, कामं भीमा अपि च मिरुतां कष्टपूर्णा: प्रयोगा: । तस्मिन् स्वस्मिल्लयमुपगते वीतगगे जिनेन्द्र,
मोघो जातो महति सुतरामश्रुवीणा निनादः । ५ मेघकुमार का विकास अन्तर्द्वन्द्व से होता है । वह प्रथमवार साधना-विमुख क्लीव की भांति सामने आता है लेकिन अन्त में उसी जीवन-सत्य में रमण करने लगता है जो संबोधिकार को अभिप्रेत है। वह मोह-विजय, अज्ञान विजय और आत्मानुशासन की साधना कर महावीर बन जाता है। गुरु ने मार्ग दिखलाया, मेघकुमार अनवरत चलता रहा, साधना सिद्ध हुई, स्वयं में महावीरत्व प्रकट हो गया। मेघ और महावीर में द्वैत समाप्त हो गया, दोनों एक हो गए।
संबोधि का एक-एक पद उसी परम लक्ष्य की व्याख्या में समर्पित है। आयुष्य की समाप्ति होने पर भवोपग्राही -वेदनीय, नाम गोत्र ओर आयुष्य कर्मों का सम्पूर्णतया नाश होने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है जो शिव, अव्यय एवं परम आनन्द स्वरूप
भवोपग्राहिक कर्म, क्षपयित्वाऽऽपुषः क्षये।
सर्वदुःख प्रमोक्षं हि, मोक्षमेत्यव्ययं शिवम् ॥
मोक्ष सभी द्वंद्वों से मुक्त, सबसे प्रधान और श्रेष्ठ आह्लादक होता है। भगवान् महावीर मेघकुमार के उपदेश देते हुए कहते हैं ---
सुखानामपि दुःखानां क्षयाय प्रयतो भव ।" लप्स्यसे तेन निर्द्वन्द्वं महानन्दमनुत्तरम् ॥ मननं जल्पनं नास्ति कर्म किचिन्न विद्यते । विरज्यमानोऽकर्मात्मा, भवितुं प्रयतो भव ।।
विषय परित्याग से वैराग्य, इन्द्रियशांति, इन्द्रियशांति से मनस्थैर्य, मानसिक स्थिरता से विकारक्षीणता एवं वासनाविनास होता है। स्वाध्याय ध्यान से विशुद्धि स्थिर होती है तथा अन्तःकरण प्रकाशित होता है अर्थात् परम आनन्द की उपलब्धि होती है ।“ वह निर्वाध सुख (परम आनन्द) ही शाश्वतमोक्ष है । सभी कर्मों का पूर्णतया विनाश मोक्ष है- कृत्स्नकर्मक्षयान्मुक्तो। पुद्गलों का अग्रहण एवं गृहीत पुद्गालों का क्षय मोक्ष पद वाच्य है ---
___ अस्वीकारः प्रक्षयो वा तेषां मोक्षो भवेदध्रुवम् ।
अप्रमत्त मुनि कर्मों के कन्धनों और उसके शुभ-अशुभ फलों का छेदन कर मोक्ष प्राप्त करता है
खंड २०, अंक ४
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