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________________ अथा यथास्थितं स्वप्नं, क्षिप्रं पश्यति संवृतः । ५७ सर्वं वा प्रतरत्यौघं दुःखाच्चापि विमुच्यते ॥ इस प्रकार पुरुषार्थी शीघ्र ही संसार दुःख को पार कर जाता है । ८. सर्वभूत मंत्री महाकवि महाप्रज्ञ जड़-चेतन रूप सम्पूर्ण जीव-जाति के साथ मैत्रीभाव के पक्षपाती हैं । 'मेत्ती मे सव्वभूएसु' यह आगमिक वचन इनके जीवन तथा साहित्य दोनों में व्याप्त है । संबोधि में महाकवि की स्पष्ट उक्ति है कि वैरी व्यक्ति वैर करते-करते उसी में अनुरक्त हो जाता है, इसलिए सदा सत्यसम्पन्न बनकर सभी जीवों के साथ मंत्री का व्यवहार करना चाहिए स्वाख्यातमेतदेवास्ति सत्यमेतत् सनातनम् । ५८ सदा सत्येन सम्पन्नो, मैत्री भूतेषु कल्पयेत् ॥ * रत्नपालचरित में कवि की यह भावना अत्यन्त उन्नतावस्था में पहुंच गयी है । मनुष्य को कौन कहे, पशु-पक्षी, वृक्ष, लता, उद्यान, सरोवर आदि प्रकृति जगत् भी मंत्री धर्म का निर्वाह करता हुआ दिखाई पड़ता है । राजा जब नगर से देशाटन के लिए प्रस्थान करता है तब वन्य पशु राजा का मित्र बनकर उनका मनोविनोद करते हैं— सखाय एते पशवो विनोदं, तन्वन्ति वैचित्युपदर्शनेन । राज्याद् विना वाहनमत्र किं मे, न्यूनं स्थितोऽत्रेति विवेक्ति तावत् ॥ ६. मोक्ष पथिक का प्रकृष्ट पाथेय : संयम संयम आत्म जागरण है । उससे आत्मगुणों का उपबृंहण होता है । आत्मा के मूल गुण हैं -- अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तचारित्र, अनन्तवीर्य, सहजानन्द आदि इन सबका प्राप्ति का कारण है-संयम । संयमरत गृहस्थ भी औदारिक शरीर से मुक्त होकर देवलोक जाता है । संयम साधना से स्वर्ग में दीर्घायु, ऋद्धिमान्, समृद्ध, इच्छानुसारी तथा कांति सम्पन्न देवयोनि की प्राप्ति होती है । संयम से सभी कर्मों का क्षय होता है जिससे संयमी मुक्त हो जाता है या समृद्धशाली देव बनता है । संयम से आवरण, विघ्न, दृष्टिमोह और चरित्रमोह का निरोध होता है, इसलिए वह साध्य (आत्म) सिद्धि का साधन है आवरणस्य विघ्नस्य मोहस्य दृक्चरित्रयोः । निरोधो जायते तेन संयमः साधनं भवेत् ॥ जो पुरुष श्रद्धा सम्पन्न होकर अपने को संयमी बना आत्म-साधना करता है, वह शांत - कषायरहित पुरुष साध्य - आत्मा के शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर लेता हैआत्मानं संयतं कृत्वा, सततं श्रद्धयान्वितः । आत्मानं साधयेत् शांत: साध्यं प्राप्नोति स ध्रुवम् ॥ महाकवि महाप्रज्ञ सतत संयमारूढ़ हैं इसीलिए इनके काव्य-ग्रन्थों के सभी पात्र खण्ड २०, अंक ४ २८३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524582
Book TitleTulsi Prajna 1995 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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