________________
निश्चित रूप से संसार को तर जाता है और उसकी विराधना करनेवाला भवसागर में डूब जाता है
आराधको जिनाज्ञायाः, संसारं तरति ध्रुवम् ।
तस्या विराधको भूत्वा भवाम्भोधौ निमज्जति ॥५० ७. पुरुषार्थ की उर्वरा भूमि
मोक्ष रूप फलदायी वृक्ष का विकास पुरुषार्थ की उर्वराभूमि पर ही हो सकता है । संसार में कोई भी लौकिक या अलौकिक क्षेत्र पुरुषार्थ से रहित नहीं हो सकता। संसार में मनुष्य अपने पुरुषार्थ से प्राप्त अन्न पर ही जीवित रहते हैं---
भूम्यां मनुष्या जीवन्ति स्वधयाऽन्नेन माः ।
पुरुषार्थ से सम्पूर्ण पाप-दोष विनष्ट होकर गिर जाते हैं, इसलिए ऋषि 'चरैवेति चरैवेति'५२ का उद्घोष करता है। पुरुषार्थी अपने पुरुषार्थ से देव (भाग्य) को भी प्रबाधित कर देते हैं, वे कभी भी दैवी विपत्तियों से अवसन्न नहीं होते । वाल्मीकि रामायण की पंक्तियां द्रष्टव्य हैं ----
दैवं पुरुषकारेण, यः समर्थः प्रबाधितुम् ।
न देवेन विपन्नार्थः पुरुषः सोऽवसीदति ॥५३
चार पुरुषार्थ-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष माने गए हैं। श्रामण्य-धर्म में मोक्ष पुरुषार्थ को ही महत्त्व दिया गया है ।
आचार्यश्री महाप्रज्ञ की दष्टि में मोक्ष-स्वरूप परम-पुरुषार्थ ही कल्प्य है। सारा भौतिक सुख सबाध एवं क्षणिक है आत्मा शाश्वत है। राग-द्वेषादि से दिग्मूढ़ व्यक्ति सनातन सुख को छोड़कर अवास्तविक सुख में लिप्त हो जाता है।
___कष्ट के बिना श्रेयमार्ग की प्राप्ति नहीं होती है। अपने बल, वीर्य, श्रद्धा और आरोग्य को देखकर क्षेत्र और समय को जानकर व्यक्ति उसी के अनुसार अपनी आत्मा को सत्क्रिया में लगाए । संबोधि की पंक्तियां द्रष्टव्य हैं.....
बलं वीर्यं च सम्प्रेक्ष्य, श्रद्धामारोग्यमात्मनः ।
क्षेत्र कालं च विज्ञाय, तथात्मानं नियोजयेत् ५५ साधना-समर से भागा हुआ मेघकुमार भगवान् के उपदेश से प्रतिबोधित होकर पुनः पुरुषकार (मोक्ष साधना) में प्रवृत्त होता है तथा शाश्वत सुख को प्राप्त करता
वीर्य सम्पन्न पुरुष सभी द्वन्द्वों- सुख-दुःख, लाभ-अलाभ, जीवन-मरण, मानअपमान आदि को समान मानकर अपने कल्याण की ओर जाता है ----
धीरः कष्टमकष्टञ्च समं कृत्वा हितं व्रजेत् । ___जो पुरुषार्थी है, निस्सार भोजन, एकांत वसति, एकांत आसन और अल्पाहार का सेवन करता है और जो इन्द्रियों का दमन करता है । देव उसके सामने स्वयं प्रकट होते हैं। वह संवृतात्मा यथार्थ स्वप्न देखता है, संसार के प्रवाह को तर जाता है और दुःख से मुक्त हो जाता है--
२८२
तुलसी प्रज्ञा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org