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________________ स्यादहिंसा परायणः' । ____ अहिंसा का शब्दार्थ है --हिंसा का निषेध। यह उसका निषेधात्मक रूप है। अहिंसा का विधेयात्मक रूप है-प्राणी मात्र के प्रति मैत्री भाव, राग-द्वेषादि का अभाव । अहिंसा धर्म का पहला लक्षण है---अहिंसा लक्षणो धर्मः । अहिंसक कभी भी परजीव का हनन नहीं करता। वह शत्रु को भी मित्र मानता है। पीड़क पर भी क्रुद्ध नहीं होता है । तात्पर्य है कि प्रिय और अप्रिय में समदृष्टि अहिंसा है और वैसी दृष्टि का धारक अहिंसक कहलाता है - प्रियाप्रिये निविशेषः समदृष्टिरहिंसकः । अभयत्व की साधना अहिंसा है, अप्रमत व्यक्ति ही अभय होता है तथा अहिंसक भी वही होता है.---'भयं नास्त्यप्रमत्तस्य स एव स्यादहिंसकः ।। जहां अभय सिद्ध होता है वहां अहिंसा सिद्ध हो जाती हैं । जो आत्मा से आत्मा को देखता है, सभी आत्माओं को देहदृष्टि से भिन्न होने पर भी चैतन्य के सादृश्य की दृष्टि से सबसे अभिन्न मानता है, वह अहिंसा को साध लेता है। अहिंसा समता भाव है, और वही चरित्र है। सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये अहिंसा के ही रूप हैं | सत्यमस्तेयकं ब्रह्मचर्यमेवम संग्रहः । अहिंसाया हि रूपाणि विहितान्यपेक्षया ॥3 अहिंसा आत्मगुण संरक्षिका है।" अहिंसा आत्मा की अनुत्तर अवस्था है ‘सात्मस्थितिरनुत्तरा' ।* इस प्रकार अहिंसा सभी धमों, उपासनाओं और महाव्रतों का मूल है। आचार्य महाप्रज्ञ की दृष्टि में जिसने अहिंसा को पूर्णतया साध लिया वह सब कुछ साध लेता ६. आज्ञावाद की उपासना आचार्यश्री महाप्रज्ञ का जीवन-मूल है--'आज्ञावाद' में पूर्णतया निरत रहना । वीतराग ने जो देखा, जिसका उपदेश किया और जिसका समर्थन किया वह आज्ञा है। अर्थात् वीतराग सिद्धांत आज्ञावाद है, जो भव्य जीवों की आत्म सिद्धि का हेतु है वीतरागेण यद् दृष्टमुपदिष्टं समर्थितम् । __ आज्ञा सा प्रोच्यते बुद्धर्भव्यानामात्मसिद्धये ॥ साधकों के लिए आज्ञा-वीतराग सिद्धांत में अप्रसन्नता और अनाज्ञा में प्रसन्नता विषाद-कारक है । तीर्थंकर की पर्युपासना की अपेक्षा उनकी आज्ञा का पालन श्रेयस्कर है । आज्ञा की आराधना करनेवाले मुक्ति को प्राप्त होते हैं और उससे विपरीत चलने वाले संसार में भटकते हैं --- आज्ञाराद्धा विराद्धा च, शिवाय च भवाय च ।२८ आज्ञा का परम सार है-राग और द्वेष का वर्जन । ये ही संसार के हेतु हैं और इनसे मुक्त होना मोक्ष है ।४९ आचार्य महाप्रज्ञ की दृष्टि में वीतराग की आज्ञा की आराधना करने वाला खण्ड २०, अक४ २८१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524582
Book TitleTulsi Prajna 1995 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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