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छिन्दन्ति भिन्दन्ति जनास्तथापि,
पूत्कुर्महे नो तव सन्निधाने । क्षमातनूजा इति संप्रधार्य,
क्षमां वहामो न रुषं सृजामः ।।५ संबोधिकार मनोज्ञ और अमनोज्ञ दोनों विषयों में समत्व धारण करना वीतरागता का मापदण्ड मानते हैं
अमनोज्ञा द्वेषबीज, राग-बीजं मनोरमा: ।
द्वयोरपि समः य स्याद्, वीतरागः स उच्यते ।।२७ ___धम्मपदकार इसे ही अनासक्त की संज्ञा से अभिहित करते हैं -- जिसे न इस लोक की और न परलोक की अभिलाषा है वही विरक्त और अनासक्त पुरुष ब्राह्मण कहलाता
आसा जस्स न विज्जन्ति अस्मि लोके परम्हि च । निरासयं विसंयुत्तं तमह ब्मि ब्राह्मणं ॥२८
भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख आदि में समबुद्धि धारण करने की बात कही है
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्ण सुखदुःखदाः ।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥२९
इस प्रकार आचार्य महाप्रज्ञ की समस्त कृतियों में समता का संगीत सुनाई पड़ता है, क्योंकि अहिंसा साधना की प्रथम पृष्ठभूमि समता ही है । समभाव के बिना अहिंसा की उपासना हो नहीं सकती है । जो विपरीत परिस्थितियों में धैर्य धारण करता है वही अहिंसा की साधना कर सकता है। इसमें स्वयं महाप्रज्ञ के वचन प्रमाण हैं । संबोधि में भगवान् मेघकुमार से कहते हैं -
अहिंसा लक्षणो धर्मस्तितिक्षालक्षणस्तथा।
यस्य कष्टे धृति स्ति, नाहिंसा तत्र संभवेत् ॥ ५. अहिंसा को आराधना
___ 'मा हिंसीस्तन्वा प्रजाः ‘मा हिंसीः पुरुषं जगत्॥२ अहिंसा परमो धर्मः॥ धम्ममहिंसासमं नत्थि, तुमंसि णाम सच्चेव जं हंतव्वं ति मन्नसि,५ भूतहितं ति अहिंसा" आदि सूक्ति वचनों का सम्पूर्ण रूपायन महाकवि महाप्रज्ञ के जीवन में लक्षित होता है । महाप्रज्ञ के लिए अहिंसा जीवनादर्श हैं । उनकी दृष्टि में अहिंसा सर्वश्रेष्ठ गुण, सर्वश्रेष्ठ व्रत, सर्वश्रेष्ठ संयम एवं सर्वश्रेष्ठ तप है। __आचार्यश्री महाप्रज्ञ की दृष्टि में अहिंसा सभी व्रतों में श्रेष्ठ है। वह श्रेष्ठ धर्म है । भगवती अहिंसा भयभीत व्यक्तियों के लिए शरण, भूखों के लिए भोजन एवं प्यासों के लिए पानी की तरह है--
शरणमिव भीतानां क्षुधितानामिवाशनम् । तृषितानामिव जलमहिसा भगवत्यसौ ॥
संबोधि में 'आत्मवद् सर्वभूतेषु' की ध्वनि सुनाई पड़ती है- 'सर्वभूतात्मभूतो हि २८०
तुलसी प्रज्ञा
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