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________________ उपर्युक्त प्रसंग से आत्मनिरीक्षण-साधना की अनिवार्यता स्पष्ट परिलक्षित होती आत्मनिरीक्षण का तात्पर्य है -- अपनी ओर देखना। मैंने क्या किया है ? मेरे लिए क्या करना बाकी हैं ? ऐसा कौन-सा कार्य है, जिसे मैं नहीं कर सकता ? आदि का चिन्तन आत्म-निरीक्षण है । जैसे शरीर के लिए आवश्यक कार्य किए जाते हैं वैसे ही आत्मा के लिए भी होने चाहिए। एक विचारक ने कहा है - मनुष्य शरीर को खुराक देता, किन्तु आत्मा को नहीं । आत्मा को भोजन दिए बिना मनुष्य का जीवन अंत में अर्थहीन सिद्ध होता है । उसमें रस उत्पन्न नहीं होता, आदमी लगभगमरा हुआ जीता है। इसी कारण संबोधिकार ने दिवस का प्रथम कृत्य आत्म-निरीक्षण को ही माना सद्यः प्रातः समुत्थाय स्मृत्वा च परमेष्ठिनम् । प्रातः कृत्यान्निवृत्तः सन् कुर्यादात्मनिरीक्षणम् ॥ ४. समता की साधना सभी परिस्थितियों में एक रस रहना, 'दुःखेषु अनुद्विग्नमना सुखेषु विगतस्पृहः' अर्थात् दुःख में अनुद्विग्न और सुख में स्पृहा रहित होना समता की साधना या समत्वयोग है । 'समया धम्ममुदाहरे मुणी' की विस्तृत व्याख्या महाप्रज्ञ के काव्य-ग्रन्थों में प्राप्त होती है---'सुख और दुःख को समभाव पूर्वक सहन करना चाहिए' इस तथ्य को महाप्रज्ञ वृक्षों के माध्यम से उद्घाटित करते हैं । रत्नपालचरित में वृक्ष राजा रत्नपाल से कहते हैं। राजन् ! हम जीवन पर्यन्त आप से उपेक्षित रहते हैं फिर भी दैन्य भाव को धारण नहीं करते हैं । संतोषपूर्वक जीवन निर्वाह करते हैं चित्रं तदेतत् तवसूनवोऽपि, ह्याजन्ममृत्योस्त्वदुपेक्षिताश्च । छायां त्यजामो न तवाग्रतोऽपि, संतोषभाजां महिमा ह्यगम्यः ॥१ आगमकार कहते हैं -जीवन-मरण में संयोग-वियोग में, अप्रिय एवं प्रिय में जो समभाव रखता है वही पूज्य होता है। आचारांग का ऋषि उद्घोषित करता 'लाभुत्ति न मज्जिज्जा, अलाभुत्ति न सोइज्जा २२.... रागद्वेष के प्रसंग में जो व्यक्ति सामान्य रहता है वही पूज्य होता है - जो रागदोसेहिं समो स पुज्जो। जो व्यक्ति संतोष को धारण करते हैं कभी पाप नहीं करते-संतोसिणो ण पकरेंति पावं" इस आगमिक सिद्धांत की प्रतिष्ठापना वृक्षों के 'संतोषभाजां महिमा ह्यगम्य'२५ इस सूक्ति वचन के द्वारा की गई है । सभी परिस्थितियों में क्षमा धारण करना महाप्रज्ञ का जीवन-सिद्धांत है । वृक्ष कहते हैं-राजन् ! लोग हमारा छेदन-भेदन करते हैं, फिर भी हम तुम्हारे पास शिकायत नहीं करते हैं। हम क्षमा (धरती) के पुत्र हैं इसलिए क्षमा धारण करते हैं खंड २०, अंक ४ २७९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524582
Book TitleTulsi Prajna 1995 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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