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भक्त का भगवान् त्रैलोक्य सुन्दर होता है
यते समानमपरं नहि रूपमस्ति । १५
महाकवि महाप्रज्ञ का प्रभु त्रैलोक्य-सौभग रूप से युक्त हैं । कामदेव भी इनकी महानता से विजित हो गया हैं
समूलमुन्मूलयितुं च चेष्टनं, विधीयते प्रत्युत हाह ! मामपि । योहं न शक्रादिभिरेव वञ्चितः, स विप्रलब्धोस्मि महात्मनाऽमुना ||
गुरु चरण में निवास ही महाप्रज्ञ को काम्य है । आचार्य स्तुति के प्रसंग में वे कहते हैं - कुछ व्यक्ति आपके ( गुरु तुलसी के) हृदय को विशाल बताते हैं, कुछ आपके मन को और कुछ आपके सुन्दर ललाट को । किन्तु देव ! मैं तो आपके चरणों को ही विशाल मानता हूं जहां कि हजारों-हजारों व्यक्तियों के मन निवास करते हैं
वाणी पवित्रं विदधाति कर्णं, स्तुती रसज्ञां नयनं च मूर्तिः ।
३. आत्म-निरीक्षण और आत्मालोचन
परं तु सर्वोत्तममुत्तमाङ्ग, पुनाति पुण्यश्चरणस्तवासौ ॥ १७
आचार्यश्री महाप्रज्ञ महाव्रती, तपस्वी एवं श्रेष्ठ मोक्ष साधक हैं। श्रेयस् की प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम इन्होंने स्व की ओर अवलोकन और आत्मनिरीक्षण पर बल दिया है । रत्नपाल चरित्र के रात्रि प्रसंग में इस तथ्य को विस्तार से निरूपित किया है । राजा रत्नपाल जब रात्रि को अंधकारदात्री होने के कारण कोशता है तब रात्रि जबाब देती है
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आप लोग मेरे अन्धकार को भयप्रद एवं दुःखदायी अनुभव करते हैं, किन्तु इसी प्रकार मन के अन्धकार को दुःखप्रद एवं भयप्रद क्यों नहीं मान रहे हैं
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सुखकरं प्रविदन्त्यपि हा ! हतम् ॥
जिस दिन मन का अन्धकार नष्ट हो जाएगा, उस दिन रात और दिन में कोई अन्तर नहीं रह जाएगा । मनुष्य कितने अविवेकी होते हैं, वे रहस्य को नहीं जानते । वे मेरे अन्धकार को तो दीप जलाकर दूर करना चाहते हैं, परन्तु अपने मन के अंधकार को मिटाना नहीं चाहते
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मम तमोsसुखदं भयदं ध्रुव, मनुभवन्ति भवन्त इदं तथा । किमु न मानससंतमसं भया
परमहो ! मनुजा अविवेकिनो,
हि भवन्ति रहस्यविदः क्वचित् । अपचिकीर्षव एव तमो मम, गृहमणेनिचयान्मनसो न च ॥ ९
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'तुलसी प्रज्ञा
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