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की विकसित अवस्था का नाम ही भक्ति है । प्रभु के गुणों पर अनन्य विश्वास, निष्ठा और श्रद्धा भक्ति-पद वाच्य है। श्रद्धा से हृदय पवित्र होता है, प्रभु किंवा गुरु के गुणों के प्रति अदाज्ञा के प्रति विश्वास बढ़ता है तब भक्ति से वे गुण स्वयं के अनाविल मानस में उतरने लगते हैं । जैसे जोती हुई भूमि में बीज शीघ्र ही उग आते हैं एवं विकास को प्राप्त होते हैं उसी प्रकार श्रद्धा-सिंचित हृद् प्रदेश में प्रभु-गुण का सहजता से आरोपण एवं विकास होने लगता है ।
प्रभु, तीर्थंकर, गुरु आदि श्रेष्ठ पुरुषों के गुणों के प्रति अनुरक्ति भक्ति है । आत्मा के अविपरीत स्वभाव में रमण भक्ति है । शांडिल्य के शब्दों में
आत्मरत्यविरोधेनेति शांडिल्य: । "
अविच्छिन्न रूप से शुद्ध आत्मरूप में रहना ही आत्मरति है, इस आत्मरति में नित्य स्थित रहना ही भक्ति है। श्री शंकराचार्य ने मोक्षसाधक सभी साधनों में भक्ति को श्रेष्ठ माना है-
मोक्षकारण सामग्रयां भक्तिरेव गरीयसी । स्वरूपानुसंधानं भक्तिरित्यभिधीयते ।।" सर्वार्थसिद्धिकार ने भावों की विशुद्धि के साथ अनुराग को भक्ति कहा है'भावविशुद्धियुक्तोऽनुरागो भक्ति: ।" अर्थात् पूज्य के प्रति विशुद्ध एवं अविच्छिन्न रति भक्ति है ।
आचार्य श्री महाप्रज्ञ के सभी संस्कृत ग्रन्थों में यह तथ्य स्पष्ट परिलक्षित होता है कि भक्ति श्रेष्ठ साधन है, साध्य भी है। अश्रुवीणा में साधन भक्ति का दर्शन होता है । जब सब कुछ छूट जाता है, संसारिक आश्रय दुःख-निरोधन में असमर्थ हो जाते हैं, दुःख का कारण भी बनने लगते हैं, तब एकमात्र भक्ति ही काम आती है, उस परमप्रभु के प्रति अनन्य रति सहायिका बन जाती है । अकिंचन चंदन बाला अपनी नमस्कारात्मिका भक्ति से ही प्रभु चरणों से शाश्वत सम्बन्ध जोड़ लेती है
सर्वा सम्पद् विपदि विलयं निर्विरोधं जगाम व्यू श्रद्धा महति सुकृतेऽद्यापि नूनं परीक्ष्या । भक्त्या देशा प्रकृतिकृपणाऽकिञ्चनैनिविशेषा, स्वाभिन्नेषा विनयविनिताऽस्मि प्रणामावशेषा ||
दैन्यावस्था में या जब संसार विपन्न हो जाता तब समर्थ की भक्ति ही काम आती है । महाभारत की द्रौपदी, श्रीमद्भागवत महापुराण की उत्तरा, अर्जुन, गजेन्द्र आदि की भक्ति इसी कोटि की है। विपत्ति की वेला में मृत्युजेता का आश्रय | आचार्य मानतुङ्ग भी इसी परम्परा में उपस्थित होते हैं । संकट की घड़ी में संकट - मुक्त की उपासना, घोर-संसार में जन्मजरा-मरण रूप दुःख से बचने के लिए मृत्युजेता की अभ्यर्थना
भक्तामर - प्रणत- मौलिमणि- प्रमाणामुद्योतकं दलित- पाप तमोवितानम् । सम्यक् प्रणम्य जिनपादयुगं युगादावालम्बनं भवजले पततां जनानाम् ॥ "
खण्ड २०,
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