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प्रयोगात्मक एवं व्यावहारिक व्याख्या वही कर सकता, जिसका जीवन श्रद्धारस से आप्लावित हो चुका है । महाकवि महाप्रज्ञ के शब्दों में ----
तत्रानन्दः स्फुरति सुमहान् यत्रवाणींश्रिताऽसि ।
दुःखं तत्रोच्चलति विपुलं यत्र मोनावलम्बा ।।
संबोधिकार महाप्रज्ञ का स्पष्ट निर्देश है कि जो वीतराग की आज्ञा के प्रति श्रद्धावान है, वही मेधावी है तथा संसार-सागर-संतरण में समर्थ होता है
आराधको जिनाज्ञाया: संसारं तरति ध्रुवम् । तस्या विराधको भूत्वा, भवाम्भोधौ निमज्जति ।। आज्ञायां यश्च श्रद्धालु: मेधावी स इहोच्यते ।
असंयमो जिनानाज्ञा जिनाज्ञा संयमो ध्रुवम् ॥'
श्रद्धा युक्त विनय से व्यक्ति महान् से महत् (श्रेष्ठ) बन जाता है -- इस तथ्य की उद्घोषणा स्वयं महाकवि के शब्दों में -
अकार्षीच्छद्धयां विनयपरिपाटी गुरुपदे, द्रुतं प्रापद् रम्यां महिम परिपाटी गुरुपदाम् । व्यधात् भक्तिं हृद्यामभजत विभक्तिं मुनिपदादिदं भक्तेस्तत्त्वं भवति भगवन् ! वा क्रयविधिः ।।
(आपने गुरु के प्रति श्रद्धायुक्त विनय का प्रयोग किया और बदले में सुरम्य तथा विशाल महिमा के स्थान को प्राप्त कर लिया। आपने गुरु के प्रति हृदय से भक्ति दिखाई और आप मुनिपद से विभक्त हो गए-आचार्य बन गए । भगवन् यह भक्ति है या विनिमय ?)
श्रद्धा के लिए हृदय की पवित्रता आवश्यक है। जिसका हृदय सद्यःजात शिशु के समान या तर्कबाण से उबे हुए महाज्ञानी के सदृश पवित्र है, वही व्यक्ति श्रद्धा का वरणीय होता है । अश्रुवीणा का प्रारम्भ ही महाकवि श्रद्धा-चेतना की इसी व्याख्या से करते हैं
श्रद्धे ! मुग्धान् प्रणयसि शिशून दुग्धदिग्धास्यदन्तान्, भद्रानज्ञान वचसि निस्तांस्तर्कबाणैरदिग्धान । विज्ञांश्चापि व्यथितमनस्तर्कलब्धावसादात्तर्केणाऽमा न खलु विदितस्तेऽनवस्थान हेतुः ।।
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि आचार्यश्री महाप्रज्ञ की दृष्टि में जीवन श्रेष्ठता की साधना भूमि में श्रद्धा प्रथम एवं अनिवार्य सहचरी है। श्रद्धा और विश्वास का संबल प्राप्त करके ही कोई जीव महामनीषी की यात्रा को पूर्ण करता है, इसलिए श्रद्धा जीवन रस है । जैसे रस के बिना फल की कल्पना नहीं की जा सकती वैसे ही श्रद्धा के बिना जीवन क्या होगा ? २. भक्ति : श्रेयस्साधिका
आचार्य महाप्रज्ञ की दृष्टि में श्रद्धा जीवन रस है तो भक्ति जीवन-धन । श्रद्धा २७६
तुलसी प्रज्ञा
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