SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तात्पर्य यह कि कवि, महाकवि, सारस्वत पुत्र आदि के जीवन-अनुभव जब परिपक्व हो जाते हैं, अविलता का निरसन, वितथ का विरसन हो जाता है, तब वे ही जीवन की अनुभूतियां कल्पना, भावना और संगीत का आश्रयण कर लोक में अभिव्यक्त होते हैं । स्वभावतः काव्य-कला में जीवन और जगत् के प्रति महाकवि का दृष्टिकोण ही रूपायित होता है । कवि का जीवन, आचार, चरितोत्कर्ष, व्यतिगत मान्यताएं आदि कविता में अभिव्यञ्जित होती हैं । कविता के माध्यम से कवि उस सत्य की व्याख्या करना चाहता है जिसकी अनुभूति का स्वाद वह पहले चख लेता है । वह अहं का विसर्जन कर जिस आनन्द तरंगिनी अहर्निश निमज्जित रहता है उसी की शाब्दिक अभिव्यक्ति काव्य-कला के माध्यम से करता है । भक्त कवि अपने उपास्य चरण- सागर से बटोरी हुई मणियों को ही काव्य - माला में पिरोता है, तो दार्शनिक आत्मांबुधि में निमज्जन से प्राप्त रत्नों को काव्याक्षरों में सजाता है । कवि, कलाकार आदि निज जीवन या स्वगत अनुभूतियों को ही अपनी कला के माध्यम से अभिव्यंजित करते हैं । सुप्रसिद्ध पाश्चात्य विचारक एम० विल्किंसन IT अभिमत है कि सत् काव्य महान् व्यक्तित्व के सभी महनीय विशेषताओं के योग से मूर्तिमान् होता है It is well to remember that great-poetry is the result of a noble synthesis of all the powers of personality. हृदयस्थ अनुभूति की अभिव्यक्ति के दृष्टांत प्राचीनकाल से ही लभ्य हैं। ऋषि वाल्मीकि अपने हृदय में स्थित राम की अभिव्यंजना करते पाए जाते हैं तो पाराशरनन्दन ब्यास अपने हृदयेश कृष्ण के चरणों में भक्ति - पुष्प अर्पण करते हुए । कालिदास श्रुत्यानुमोदित धर्म की प्रतिष्ठा में व्यस्त हैं तो भारवि, माघ अपने पांडित्य - विजृम्भण में तल्लीन | आचार्य मानतुंग संसार-संतारण - समर्थ नौका की व्याख्या में तो जयदेव 'हरिमवलोकय सफलय नयने' की आराधना में आसक्त | इसी प्रकार महाकवि महाप्रज्ञ अनुभूत सत्यों की प्ररूपणा एवं घटित घटनाओं की अभिव्यंजना में अनुरक्त हैं । ये अपने काव्य-ग्रन्थों में उन्हीं की कहानी कह रहे हैं जिनका साक्षात्कार उन्हें अपने जीवन में हो चुका है । 'सम्बोधि', 'अश्रुवीणा', रत्नपालचरित' आदि काव्यग्रन्थों से वे ही ध्वनियां सुनाई पड़ती हैं जो पूर्व में ही इनके ध्वनि तन्त्रों में स्थापित हो चुकी हैं, प्राणवायु में मिल गयी हैं । इन्होंने जो कुछ भी अनुभव किया, जिस किसी को अनुभूति का विषय बनाया, उसी का सारस्वत संविधान इन काव्य ग्रन्थों में पाया जाता है । १. श्रद्धा : जीवन रस कवि सर्वप्रथम उसी की चर्चा करता है, जिसका अवलम्ब लेकर वह महान् बनता है आचार्य, दार्शनिक, विचारक या समाज का कोई भी सारस्वत पुरुष, अपनी बौद्धिक क्षमता के विकसित होने पर, प्रथमतः उसी को शाब्दिक अभिव्यक्ति देता है, जिसका २७४ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524582
Book TitleTulsi Prajna 1995 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy