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________________ महाकवि महाप्रज्ञ का जीवनदर्शन ( महाप्रज्ञ कृत संस्कृत काव्य-ग्रन्थों के आधार पर ) जब कभी किसी श्रेष्ठ महाकवि के कालादि की सीमा से व्यवच्छिन्न किसी काव्य का अध्ययन करते हैं तो उस समय केवल कविता ही सामने रहती है, उसका अर्थ गौण हो जाता है, क्योंकि अर्थ बुद्धि का विषय है कविता हृदय प्रदेश का । अन्वेषण काल में कुछ और ही हो जाता है । न वैसी रमणीयता होती है न महनीयता । सब कुछ क्षणभर में बदल जाता है । उस समय कुछ और ही हाथ लगता है जो कविता को छोड़कर सब कुछ होता है । काव्यास्वाद ऋत-सरोवर में निमज्जन और सौन्दर्य में विलय का नाम है, जहां केवल सत्यानुभूति होती है । अर्थान्वेषण से वैचारिक बोध होता है जो सत्य से काफी अलग रहता है । रसिक रसप्रवाह में निमज्जित होकर धन्य हो जाता है तो वणिक् उस रस के मूल्यांकन करने में ही सब कुछ खो देता है । भंवरा शकुन्तला का अधरामृत पीता है तो दुष्यन्त उसकी जाति खोजने में ही समय गंवा देता है - वयं तत्त्वान्वेषान्मधुकर हतास्त्वं खलुकृती । वल्गुता एवं रमणीयता रूप कैलाश की गोद में निवसित कमनीय - कविता रूप आह्लाद्य- अलका से निःसृत गीतमय गांगेय रसधारा में जो निमज्जित हुआ, समझो कि उसने सब कुछ पा लिया, शरीर का रूप एवं लावण्य आत्मा के त्याग और तप में परिणत हो गया, मानव जीवन का ललाम - लक्ष्य अन्नमय से आनन्दमय कोष की प्राप्ति हो गई, शिवभूत सौन्दर्य - सागर का पता प्राप्त कर लिया, चिद्विलास में रमण करने के सामर्थ्य की लब्धि हो गयी । वह भाग्यवान् जीवन मूल्यों के स्वाद को स्वयं तो खूब चखता ही है, शेष संसार के जीवित प्राणियों, छइल्लो एवं श्रेयपिपासुओं के लिए भी अमृत - रस की धारा बहा जाता है । ण्ड २०, कविता की अलका, कैलास की गोद में है । यहां कैलास ही विचारणीय है— जहां ज्ञान का लास्य हो, समाधि, साधना और सौन्दर्याराधना का पूर्ण अधिवास हो तथा तप, व्रत, स्वाध्याय और जीवन अनुभव चारों मिलकर एक वैसे आम्रफल का निर्माण करते हैं जिसमें गुठली और छिलका का स्थान नहीं होता । होता है केवल रस, केवल रस । वह फल किसको प्रिय नहीं है ? ऐसे कैलास में कविता की अलका बस सकती है, उसकी अनुगामिनी बन सकती है, और उससे निःसृत रस प्रवाह पूरे लोक को आप्यायित करता है । | हरिशंकर पाण्डेय अंक ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only २७३ www.jainelibrary.org
SR No.524582
Book TitleTulsi Prajna 1995 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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