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उस पर आये हर विघ्न का भी विनाश करने वाला होता है। तभी तो कहा
'मुच्यन्त एव मनुजा: सहसा जिनेन्द्र, रौद्ररुपद्रवशतैसर्वायवीक्षितेऽपि२८, भक्तामर (श्लोक संख्या ३४ से ४२) में ही दर्शाया गया है कि भगवान की शरण लेने वाला सम्पूर्ण उपद्रवों से पार पा जाता है। उदाहरण रूप में -
'त्रासं विहाय भवतः स्मरणाद् व्रजन्ति । २९ 'बद्धक्रम क्रमगतं हरिणाधिपोऽपि, नाकामति क्रमयुगाचलसंश्रितं ते ।
परमात्मद्वात्रिशिका में आचार्य अमितगति ने भी आराध्य को शरणागत स्वरूपमान कहा है .....' तं देवमाप्तं शरण प्रपद्ये ।''
इसी प्रकार जयाचार्य ने तो बार-बार आराध्य की शरण स्वीकार कर उन्हें शरणागतवत्सल माना है ---
'अशरण शरण तूं ही सही ।'३२ 'अंतरयामी शरण आपरै हूं आयो अवधार ।। 'शरण तिहारै शरण तिहार शरण तिहार हो।३४ 'शरण आयो स्याम रे जी अविचल सुख नै काज ।'३५ 'शरण आया तुझ साहिबा ।'३६
और इसी प्रकार गणाधिपति पूज्य गुरुदेव ने भी एकमात्र शरणागतरक्षक को ही याद किया है.---
'मादृगशरणं, धृत चरणम् । भवदन्यं कं शरणं मन्ये ।" शारीरिक सौन्दर्य
जो भी व्यक्ति आराध्य बनने के योग्य हैं वे महान् होते हैं और शील गुण मे संपन्न होने से आंतरिक सौन्दर्य से संयुक्त होते हैं लेकिन बाह्य सौन्दर्य भी अपना एक स्थान रखता है। शारीरिक लक्षण भी उत्तम व उत्कृष्ट प्रायः महान् व्यक्तियों को स्वतः प्राप्त रहते हैं। उनके दर्शनमात्र से ही भक्तहृदय खिचता चला जाता है।
निर्गुणनिराकार, परमपद को प्राप्त आराध्य तो सुन्दर है ही। गणाधिपति गुरुदेव 'चतुर्विंशति गुण-गेय-गीति' में कहते हैं --'नविकाराय निराकृतये, सर्वज्ञाय शिवाय भगवते चिन्मयरूपायमृतये ।"
भक्तामर में आराध्य की शरीर सुन्दरता का वर्णन करते हुए यहां तक कह दिया
'दृष्ट्वा भवन्तमनिमेषविलोकनीयं, नान्यत्र तोषमुपयातिजनस्य चक्षुः । 'यत्ते समानमपरं न हि रूपमस्ति । 'वक्त्रं क्व ते सुरनरोरगनेत्रहारि, निःशेषनिजित जगत्रितयोपमानम् ।'४१
इसी प्रकार आचार्य सिद्धसेन ने अपने आराध्य को श्यामवर्ण वाले व अति सुन्दर घोषित किया है..२७०
तुलसी प्रज्ञा
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