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श्यामं गभीर" 'सुमतिजिनेश्वर साहिब शोभता ।
जयाचार्य की ऐसी एक नहीं अनेक पंक्तियां हैं जो उनके आराध्य को सुन्दरतम घोषित करती है---
'समवसरण बिच फावता, इन्द्र थकी ओपै घणी ।' 'निरख-निरख धाप नहीं, एहवो रूप अमामी हो ।४४ 'सूरत थारी मन बसी साहिबजी ।"५ 'इन्द्र थकी अधिका ओप।४। _ 'मोनें प्यारा लागै छै जी अर जिनराज ।'
इस प्रकार शारीरिक सौन्दर्य भी आराध्य का अतिरिक्त अतिशय होता है । जगन्नाथ
भक्त हृदय में विराजमान आराध्य सर्वोत्कृष्ट होता है। वह अपने आराध्य को सर्वोत्तम उच्चासीन देखना चाहता है । अपने आराध्य की तुलना में दूसरा कोई भी उसकी दृष्टि में नहीं होता है अतः आराध्य तीनों लोकों का शरणभूत, जगन्नाथ, परमपिता परमेश्वर स्वरूप वाला हो।
कल्याणमन्दिर में--'विश्वेश्वरोऽपि' विश्व ईश्वर रूप समान है तो आचार्य अमितगति ने 'त्रिलोकदर्शी' विशेषण से युक्त आराध्य की याचना की है। इसी प्रकार 'यो व्यापको विश्वजनीन-वतिः । ४८
जयाचार्य का आराध्य भी जगत् नाथ है-- 'शिवदायक तूं जगनाथ ।'४९ 'त्रिभुवन सिर टीको रे ।५० 'जगदयाल तूं ही कृपाल । ५१
'जगतनाथ जिनजाणी' आदि । मनोकामनापूरक
सच्चे आराध्य की शरणागति में आने वाला भक्त हृदय वैसे तो सभी अभीप्साओं से उपरत हो चुका होता है फिर भी आराध्यदर्शन की तड़फ उसे भी व्याकुल करती रहती है। मुक्तिधाम तक जाने के लिए वह उत्कट इच्छा वाला हो जाता है। इसीलिए वह अपने आराध्य में वह सामर्थ्य दृष्टिगत करता है जो उसकी हर मनोकामना पूर्ण कर सकता है । देखिये ---जयाचार्य की ही भाषा में...-
'मन चितित वस्तु मिले, रटियां जिन स्वामी हो ।'५३ 'समरण करतां आपरो, मन वांछित होय ।५४
इस प्रकार इन स्तुतिपरक ग्रन्थों के आधार पर हमारे आराध्य में बहुत सारी विशेषताएं होती हैं।
खण्ड २०, अंक ४
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