________________
'यस्मिन् हर प्रभृतयोऽपि हतप्रभावा:,
सोऽपि त्वया रतिपतिः क्षपितः क्षणेन ।११ और जयाचार्य ने कामभोगों को प्रत्यक्ष जाल मानते हुए कहा है"विरक्त चित्त विघट्यो इस्यो, जाण्या प्रत्यक्ष जाला' ।
छांड गृहवास करी मति निरमली ।१४ और इसी प्रकार"विषय विटंबण हो तजिया विषफल जाण ।"५ 'संवेग सखर झलता उपशम रस लीना ।" आदि पंक्तियों में आराध्य का वैराग्यवान स्वरूप घटित होता है।
आचार्य अमितगति भी मानते --'समस्त संसार विकार बाह्य" अर्थात् आप संसार के सभी विकारों से दूर हैं। मुक्तिप्रदाता
हमारा परम प्राप्तव्य लक्ष्य है ---- मोक्ष। उसकी प्राप्ति में सहायक बनता है हमारा आराध्य । अत: हमारा आराध्य मुक्ति प्रदान करने वाला हो। मानतुंगाचार्य कहते हैं ......
'नान्य शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र ! पन्थाः ।" आचार्य सिद्धसेन के आराध्य की स्तुति मात्र से ही परमात्मदशा प्राण्त होती हैध्यानाज्जिनेश ! भवतो भविनः क्षणेन ।
देहं विहाय परमात्मदशां व्रजन्ति । १९ इसी प्रकार वे आगे कहते हैं'ते विगलितमलनिचया, अचिरान्मोक्षं प्रपद्यन्ते । २० आचार्य अमितगति भी इसका समर्थन करते हैं ---
'शश्वदधीतो मनसि लभन्ते, मुक्तिनिकेतं विभववरं ते ।" गणाधिपति गुरुदेव भी कहते हैं-हे प्रभो ! आपका स्वरूप कैसा है ?
"भवजलराशि निस्तीर्ण:' । और जयाचार्य की ये पंक्तियां----- 'अहो प्रभो ! तुम ही दायक शिवपंथना ।'३३ 'भव सिन्धु पोत तूं ही सही । २४ 'मेटण भव-भव खामी हो । २१ 'शिवदायक तूं जगनाथ ।" "शिवदायक सुखकंद की।
-भी आराध्य के मुक्तिप्रदाता स्वरूप को स्वीकृत करती है। शरणागतरक्षक
आराध्य सर्व सामर्थ्यवान होता है और भक्त सामान्य । लेकिन आराध्य भक्त को कभी भी सामान्यपन का अहसास नहीं होने देता है। वह उसकी चहुंमुखी जिम्मेवारी को वहन करने वाला होता है। वह न केवल शरण देने वाला अपितु खण्ड २०, अंक ४
२६९
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org