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सम्पन्नता, जगन्नाथ, मनोकामनापूरक, विघ्नहर्ता आदि-आदि । वीतरागता
राग-द्वेष रहित वीतरागता का धारक आराध्य भक्तों का सच्चा सहायक बन सकता है। भक्त हृदय में अपने आपको स्थापित या अवस्थित कर सकता है। 'कल्याणमंदिर' में आचार्य सिद्धसेन कहते हैं-'त्वामेव वीततमसं परवादिनोऽपि" । यहां यहां तमस का अर्थ राग-द्वेष से लिया गया है और इसीलिए आचार्य कहते हैं कि हे प्रभो ! अन्य दर्शनी लोगों की दृष्टि में भी केवल आप ही वीतराग हैं ।
आचार्य अमितगति ने भी 'परमात्मद्वात्रिशिका' में अपने आराध्य का स्वरूप जताते हुए कहा है ---
'रागादयोः यस्य न सन्ति दोषाः५ अर्थात् जिसमें राग-द्वेष आदि रूप दोष न हो वह देवाधिदेव मेरे हृदय में विराजमान हों।
तेरापन्थ के चतुर्थ आचार्य श्रीमज्जयाचार्य भी 'चौबीसी' में यही प्रकट करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। देखिए, उनका आराध्य किस प्रकार वीतरागता को प्राप्त
'अहो ! वीतराग प्रभु तूं सही।" 'उभय बंधण आप आखिया, रागद्वेष विकराल हो।" भगवान् सुविधिनाथ की स्तुति में वे कहते हैं'मधुकर मरंद तणी पर, सुरनर करत सलामी हो ।
तो पिण राग व्याप नहीं, जीत्यो मोह हरामी हो ।"
अर्थात् उनके भगवान् सुविधिनाथ ने तो इस प्रकार मोह (रागद्वेष) को जीत लिया है कि देवता लोग इस रूप में झुक कर वन्दना करते जैसे कमल पराग पर मधुकर झुकता है। फिर भी उनके दिल में रागभाव नहीं उपजता है।
। हालांकि राग-द्वेष दोनों दुर्दमनीय है फिर भी उनके आराध्य ने उन्हें जीत लिया है -'राग-द्वेष दुर्दत ते दमिया ।"
____'चतुर्विंशति गुण-गेय-गीति' में गणाधिपति पूज्य गुरुदेव भी कहते हैं-'रागद्वेष विशेष विरहितं'।" हे प्रभो ! आप विशेष रूप से राग-द्वेष रहित हैं। वैराग्यवान्
जो विराग को धारण करने वाले होते हैं वे वैराग्यवान कहलाते हैं। जैनदर्शन का चरम लक्ष्य है मुक्ति और उसकी ओर अग्रसर होने का साधन है ---वैराग्य । हमारा आराध्य संसार से विमुख हो अर्थात् कामभोगों के प्रति अनासक्त, मोक्षाभिलाषी हो । भक्तामर में आचार्य मानतंग अपने आराध्य को उत्कृष्ट कोटि का वैराग्यवान सिद्ध करते हुए कहते हैं -----
'चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांगनाभिनति मनागपि मनो न विकारमार्गम् ।१५
कल्याणमन्दिर में आचार्य सिद्धसेन ने तो यहां तक कह दिया कि महादेव आदि देव जहां हतप्रभाव हो गए हैं उस कामदेव को भी अपने हरा दिया२६८
तुलसी प्रज्ञा
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