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________________ ५. पापप्रक्षालक-स्तोत्र-काव्य का उपजीव्य भक्तों के पापों का शमन कर्ता होता है। वह सकलकलुषविध्वंसक होता है। तुलसी-स्तोत्र में अनेक स्थलों पर (श्लोक संख्या ११, १५, १८, २४) आलम्बन के इस स्वरूप पर प्रकाश पड़ता है। भक्त अपने प्रभु से याचना करता है कि हे प्रभो ! मेरे पापों का अपकर्षण करो--- __पापं विषोपमपाकुरुषे क्षणेन ॥११॥ आपको पाकर पाप वैसे ही भाग जाते हैं जैसे हिरण सिंह के भय से पापं तथैव भवतः समुपैति भीतिम् ॥१५।। ६. सबका उपास्य-- आलम्बन सबका प्रार्थ्य, गम्य एवं उपास्य होता है । पक्षीसमूह अपनी मधुर कूजन के ब्याज से उसी का स्तुति करता है, देव, मनुष्य सदा उसी के चरण में लौटते रहते हैं। वृक्ष दोलन के मिष (ब्याज) से उसी के सामने विनम्र होते हैं। संसार में कौन ऐसा प्राणी है जो उसका अनुगमन नहीं करता पक्षिवजा रवमिषान्मधुरं स्तुवन्ति , देवा नरास्तव लुठन्ति सदैव पादे वृक्षाश्च दोलनमिषादभवन् विनम्राः। को वानुगो भुवि तले महतां नहि स्यात् ॥१३॥ इस प्रकार तुलसी स्तोत्र में स्तोत्र-आलम्बन के स्वरूप पर काफी प्रकाश डाला गया है । उपर्युक्त गुणों के अतिरिक्त वह वीतराग (१७) भवाग्नि ताप विनाशक (१८) संसार संतारक (२२), अन्तस्तिमिस्राहारक (१९), मृत्यु विनाशक, रोगहारक एवं एकमात्र प्रतिष्ठा का पात्र है । स्तोत्र का फल 'प्रयोजनमनुदिश्यमन्दोऽपि न प्रवर्तते' अर्थात् प्रयोजन को जाने बिना मन्दमति भी किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं होता ? इस न्याय से यह जिज्ञासा समुत्थित होती है कि इस स्तोत्र से क्या लाभ है ? क्यों हम स्तोत्र की रचना या रचित स्तोत्र का पाठ करें ? प्रस्तुत जिज्ञासा तुलसी-स्तोत्र के सन्दर्भ में विचार्य है १. दोष विनाश---प्रभु के स्मरण गुणकीर्तन से सद्यः लाभ यह होता है कि __ दोषों का क्षय हो जाता है पादाश्रयाच्च भवतां सकलात्मदोषः ॥२४॥ २. कथा श्रवण से मुक्ति-भक्ति शास्त्रों में इसका निर्देश मिलता है कि प्रभु गुण श्रवण से मुक्ति मिलती है, दुःख शांत होते हैं, मनःस्थिर हो जाता है । भागवतकार कहते हैं तव कथामृत तप्तजीवनं, कविरीडितं कल्मषापहम् । श्रवणमंगलं श्रीमदाततं गृणन्ति ते भूरिदा जनाः ॥ तुलसी-स्तोत्र का भक्त कवि कहता है-रोग से आकुल बलहीन और कुरूप जीव भी हे प्रभो ! आपके नाम कीर्तन से कामदेव स्वरूप हो जाते हैंचण्ड २०, अंक ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524582
Book TitleTulsi Prajna 1995 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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