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स्तोत्र का आलंम्बन
कोश ग्रन्थों में आलम्बन का अर्थ आधार, आश्रय, कारण आदि है । प्रश्न होता है कि तुलसी स्तोत्र का आलम्बन कौन है ? इसका सरल समाधान है जिसके प्रति स्तोत्र समर्पित है, वही स्तोत्र का आलम्बन है । पुनः जिज्ञासा समुत्थित होती है कि कौन है वह जिसके प्रति स्तोत्र या स्तुतियां समर्पित की जाती हैं ? वह सांसारिक बन्धनों में फंसा जीव नहीं हो सकता क्योंकि वह स्वयं परतंत्र, असमर्थ, मरणधर्मा, अक्षम एवं संसारिक विषय-वासनाओं में लिप्त है । स्तुति उसकी की जाती है, जो सर्व व्यापक हो, सर्वसमर्थ हो, लोकातीत हो, सर्वज्ञ हो, अमर हो और विषयातीत हो ।
प्रस्तुत सन्दर्भ में 'तुलसी स्तोत्र' के आलोडन से आलम्बन के स्वरूप पर प्रभूत प्रकाश पड़ता है ।
१. कल्याणदाननिरत- भक्तकवि दिनकर का स्तव्य संसारिक जीवों का कल्याणकर्त्ता है । विश्वमंगलकारक ही उसका स्वरूप है । वह देव समूह के द्वारा पूज्य है, तथा उसका लौकिक अभिधान श्री तुलसी है
कल्याणदान- निपुणं भुवनैक पूज्यं,
तस्यैव तुच्छ - धिषणः स्तवन करिष्ये || १||
२. गुणखनि --- वह अनन्त दुर्लभगुणों की खनि है / उसके गुण उतुङ्ग गिरि शिखर के समान उन्नत, आम्रफल के समान रसमय एवं मधुर हैं
यत्ते गुणागिरि - शिरः स्थितसद्रसाल
देवन्द्र देवनिकरैरनिशं निशेव्यम् ।
नत्वा प्रमोदविभरस्तुलसीं सुभक्त्यां,
वृक्षस्य मिष्ट- परमेष्ट - फलौघ तुल्याः ॥३॥
३. कुम्भकार - स्तोत्र का आलम्बन कुम्भकार होता है । जैसे
कुम्भकार मिटी के लौंदे को अपनी कला कुशलता से मंगल कलश बना देता है, उसी प्रकार गुरु या समर्थ प्रभु मूढ़ को भी फणकार की यात्रा करा देता है । स्वयं कवि दिनकर के शब्द प्रमाण है
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४. बोधप्रदाता- - आलम्बन स्वयमेव बुद्ध अर्थात् बोध प्राप्त होता है तथा अपने शरण्यगतों को भी बोधि का दान करता है । जैसे अनुकूल पवन एवं जल प्राप्त कर भूमि में अंकुर आ जाते हैं उस प्रकार प्रभु प्रसाद रूप जल को पाकर भक्त हृदय में बोधाङ्कुर स्फुरित हो जाता है
प्राप्यानुकूलमनिलं सलिलं सलीलं,
क्षेत्रे समुद्भवति सत्वरमङ कुरालिः । त्वत्सत्कुपोदकभरैः परिसिक्त एव,
बोधाङ, कुरः स्फुरति मदहृदये तथाहि ॥ १०॥
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पाषाण- दारक करागत-लोष्ट खण्डं, शीघ्रण कांतमनुगच्छति मूर्तिरूपम् । त्वत्पाणिपल्लवमुपेत्य तथाऽहमद्यकिं नो भवामि वर- काव्यकरः प्रकामम् ॥ १॥
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तुलसी प्रज्ञा
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