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________________ खेलन्ति विश्व-पुरुषस्य शिरोऽग्रभागे । चित्रं किंमत्र यदि वा गणभृत कृपातः, स्तोत्रस्य गुम्फन विधौ कुशलो भवामि ॥८॥ जैसे पाषाण मूर्तिकार की कला से मूत्ति बन जाता है उसी प्रकार समर्थ प्रभु की कृपा से एक नाचीज भी फणकार बन जाता है - पाषाणदारक-करागत-लोष्ट खण्ड शीघ्रण कान्तमनुगच्छति मूर्तिरूपम् । त्वत्पाणिपल्लवमुपेत्य तथाहमद्य किं ? नो भवामि वर-काव्यकर: प्रकामम् ॥९।।। ३. समर्पण-~सम्पूर्ण समर्पण की शाब्दिक अभिव्यक्ति स्तुति है, आत्मिक-व्याख्यान भक्ति है। जितने भी स्तोत्र मिलते हैं सब समर्पण की संहिता में सन्निहित पाये जाते हैं । भक्त अपना पाप-पुण्य सब कुछ प्रभु के सामने उद्घाटित कर स्वच्छन्द हो जाता है, मुक्त हो जाता है, भयरहित हो जाता है जैसे बालक अपने माता के सामने । भक्त कवि दिनकर की यह अवस्था सम्पूर्ण स्तोत्र में विद्यमान है। ४. शरणागति-स्तोत्र या भक्ति में शरणागति की भूमि आवश्यक है। स्तोत्र के माध्यम से भक्त अपने समर्थ की शाश्वत-शरण को ग्रहण कर आप्तकाम बन जाता है । भवरोग के अकाट्य जाल में फंसा गजेन्द्र प्राक्तन संस्कार बशात् अपने जीवनेश का चरणशरण ग्रहण करता है, गोपियां बार-बार प्रभु चरण में उपस्थित होती हैं क्योंकि मृत्यु संकट से कौन बचा सकता है ? जो स्वयमेव मृत्युजेता है-उत्तरा ब्रह्मास्त्र से भीत होकर त्रैलोक्यपति के चरण में ही उपस्थित होती है :---- पाहि पाहि महायोगिन् देवदेव जगत्पते । नान्यं त्वदभयं पश्ये यत्र मृत्युः परस्परम् ॥ --भा० पुराण १.८.९ गम्भीर संसार सागर में फंसा हुआ मानतुङ्ग अब किसके शरण जाए ? कौन बचा सकता है ? आचार्य मानतुङ्ग भी उसी के शरण प्रपन्न होते हैं जो भवजल में पतित होते हुए लोगों के लिए एकमात्र आलम्बन है भक्तामर-प्रणत मौलिमणि-प्रभाणामुद्योतकं दलित-पाप तमो वितानम् । सम्यक् प्रणम्य जिनपादयुगं युगादा वालम्बनं भवजले पततां जनानाम् ॥ --भक्तामर-१ जरा, मरण एवं रोग रूप सैकड़ों पिशाचों से ग्रस्त जीव एवं संसार से भयभीत प्राणी उसी के शरणापन्न होते हैं । तुलसी स्तोत्र के संगायक के शब्द प्रमाण हैं रात्रिचरोद्भव-रवै: निविडान्धकारैः, दीपाश्रयं ह्यनुसरन्ति जनाः विभिताः। एवं जरा-मरण-रोग-शतैः पिशाचैः, ग्रस्ता नयन्ति शरणं भगवन् त्वदीयं ॥२८॥ खण्ड २०, अंक ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524582
Book TitleTulsi Prajna 1995 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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