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भक्ति के तत्व
- स्तोत्र या स्तुति भक्ति के बिना स्फूर्त हो ही नहीं सकती। जब प्रभु चरणों में अविचलं अनुराग, अविच्छिन्न श्रद्धा और दृढ़ विश्वास उत्पन्न होता है, तभी स्तुति-काव्य का प्रादुर्भाव होता है। भक्ति से स्तुति उत्पन्न होती है और स्तुति से भक्ति पूर्ण होती है। दोनों एक दूसरे के सहायक हैं । इसलिए भक्ति के तत्त्व स्तुति में अनायास ही स्फुट रूप में पाए जाते हैं।
___ शांडिल्य के अनुसार आत्मा के विशुद्ध स्वभाव में रमण करना भक्ति है, नारद के अनुसार उपास्य के साथ तन्मयत्व ही भक्ति है। स्तुति या स्तोत्र इसी तन्मयत्व काल के उपज होते हैं। तुलसी स्तोत्र में भक्ति के अनेक तत्त्व उपलब्ध होते हैं :१. अपनी तुच्छता का ज्ञान-भक्ति या स्तुति के लिए सर्वप्रथम अपनी तुच्छता का ज्ञान होना आवश्यक है । जब भक्त अपनी ओर देखने लगता है, सांसारिक शक्ति जब पूर्णतया समाप्त हो जाती है तब कहीं प्रभु-विषयिणी भक्ति या स्तुति का जन्म होता है । तुलसी-स्तोत्र के निर्माता को इस व्यवस्था का पूर्ण ज्ञान है । प्रारम्भिक श्लोक इसके प्रमाण हैं(क) तस्यैव तुच्छ-घिषणः । -१ (ख) जानामि किञ्चिदपि नाथ ! न शब्द शास्त्रं
नैवं च काव्यकलने प्रवण्यमतिर्मे ।--२ २. प्रभु चरण में विश्वास, अखण्ड श्रद्धा----अपने उपास्य, भवजल में एक मात्र संरक्षक के प्रति अखण्ड श्रद्धा, पूर्ण विश्वास स्तुति या भक्ति में काम्य हैं । तुलसी स्तोत्र के स्तोता को यह ज्ञान होते हुए भी 'मैं मूर्ख हूं स्तुति नहीं कर सकता, मुझमें सामर्थ्य नहीं है' वह समर्थ के गुणकथन में प्रवृत्त होता है क्योंकि उसको विश्वास है कि हमारा गुरु पूर्ण समर्थ है, उसके चरण-ध्यान मात्र से मेरी बुद्धि समर्थ बन जायेगी। ___ त्वद्भक्तिरेव मुखरी कुरुते बलान्माम् ।
-भक्तामर स्तोत्र-६ जैसे लता पादप का आश्रय लेकर ऊर्ध्वगामी बन जाती है । उसी तरह भक्त भी प्रभु प्रसाद से रम्य-रचना में समर्थ हो जाता है। तुलसी-स्तोत्र की पंक्तियां प्रमाण
ऊवा भवेत् सततमेव गतिलताया, सम्प्राप्य-पादप समाश्रयमद्वितीयम् । मन्ये तथैव परितः सफली भवामि,
स्तोत्रस्य रम्य रचनासु तव प्रसादात् ॥७॥ जैसे धूलिकण पवन के सम्पर्क से श्रेष्ठ पुरुषों के मस्तक पर भी पहुंच जाते हैं उसी तरह से पूज्य गणभृत् (गणधारक) की कृपा से ही मैं (दिनकर) स्तोत्र गुम्फन में समर्थ हो जाऊंगा
__ वायोः प्रयोगमनुसृत्य रजः कणायत्, ३५८
तुलसी प्रज्ञा
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