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तुलसी स्तोत्रम् : एक परिचय
स्तोत्र पद सिद्धि
अदादिगणी 'स्तु - स्तुतो' धातु से 'दाम्नीशसयुयुजस्तुतुदसिसिचमिहपतदशन हः करणे' (पा० ३.२.१८२ ) सूत्र से करण अर्थ में 'ष्ट्रन्' प्रत्यय करने पर 'स्तोत्र' शब्द सिद्ध होता है । स्तूयतेऽनेनेति अर्थात् जिसके द्वारा स्तुति की जाय वह स्तोत्र है । अर्थवाद प्रशंसा, स्तुति, ईडा, नुति, विकत्थन, स्तव, श्लाघा, वर्णना आदि शब्द ' स्तोत्र' के पर्यायार्थक हैं । समर्थ के गुणों का कीर्तन स्तोत्र या स्तुति है । प्रभु, गुरु, भगवान्, सर्वज्ञ आदि के अकाट्य एवं अखंडित गुणों को हृदय में धारण कर उन्हीं की श्रद्धामिश्रित भाषा में पुन: अभिव्यंजना स्तुति है । 'तुलसी स्तोत्र' में सर्व समर्थ गुरु के गुणों का संगायन ही अभिलक्ष्य है। भक्त मुनि मधुकर को अपने जीवनहार का भाविक एवं शाब्दिक चित्र अपने हृदय पटल पर अवतारण ही अभिप्रेत है ।
स्तोत्र काव्य की परम्परा और तुलसी स्तोत्र
जब से मनुष्य जाति को हृदय मिला, हृत्प्रदेश को गुदगुदाने लगी, बस समझो प्रवाहित हुई । भारतभूमि पर वैदिक, जैन धाराएं फल्गु - प्रवाह के रूप में प्रवाहित हैं । सबने अपने चढ़ाए। जैन परम्परा में आगम काल से ही 'स्तोत्र'
है ।
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डा० हरिशंकर पाण्डेय
और
जीवन का स्पन्दन हुआ, श्रद्धा कन्या कि तभी से 'स्तोत्र' काव्य की परम्परा बौद्ध के अतिरिक्त अनेक – चिन्तन उपास्य के प्रति भक्ति के पुष्प विरचन का प्रवाह अविच्छिन्न
आचार्य समन्तभद्र ( ई० शताब्दी द्वितीय) कृत देवागम स्तोत्र, स्वयंभू स्तोत्र एवं जिन स्तुति शतक, पूज्यपाद (५ वी श) कृत शांतिनाथ स्तोत्र, सिद्धसेन दिवाकर ( ई० ५५५) कृत कल्याण मन्दिर एवं शाश्वत जिन स्तुति, पात्रकेशरी ( ६-९ ई०) कृत जिनेन्द्र स्तुति, भट्ट अकलंक (ई० ६४०-६८० ) कृत अकलंक स्तोत्र, विद्यानन्दि कृत ( ई० ७७५-८४० ) कृत सुपार्श्व स्तोत्र, बादिराज ( ई० १००० १०४०) कृत एकीभाव स्तोत्र, वसुनन्दि ( ई० १०२१-१०२५) कृत जिनशतक स्तोत्र मानतुंग ( ई० १०२११०२५) कृत भक्तामर स्तोत्र, हेमचन्द्र कृत (१०८८-११८३ ई०), वीतराग स्तोत्र आदि अनेक स्तोत्र काव्य प्रतिष्ठित हैं । तुलसीस्तोत्र 'भक्तामर स्तोत्र' के उपजीव्यत्व पर आधारित है । तेरापन्थ धर्मसंघ के नवम आचार्य (सम्प्रति पूज्य गुरुदेव गणाधिपति श्री तुलसी) के शिष्य कला और गला में आसक्त मुनिश्री दुलीचन्दजी उर्फ दिनकरजी द्वारा विरचित यह स्तोत्र अपने गुरु तुलसी को ४८ श्लोकों में समर्पित है ।
खंड २० अंक ४
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