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________________ रोगाकुल गतबलाश्च कुरूपधुर्याः । ___त्वन्नामतो ननु भवन्ति मनोजतुल्याः ॥३१॥ त्वन्नामतः क्षयमियन्ति शरीरभाजाम् ॥३७।। ३. दुर्लङ ध्य अटवी से मुक्ति-स्तोता भयंकर से भयंकर स्थल को भी अपने प्रभु कीर्तन के बल पर सहजतया पार कर जाते हैं--- दुर्लङ्घ्य लङद्यनवतीमटवी सुखेन । कामन्ति ते स्तुतिकरा मनुजा नितांतम् ॥३४।। ४. देहधारियों का आधार--संसार सागर में गिरते हुए जीवों के लिए स्तोत्र __ सबल आधार का काम करता है :-- आधारभूतमनिशं किल देह भाजां। स्तोत्रं तवातिरुचिरं परिमज्जतां स्यात् ।।३६।। तुलसी स्तोत्र में काव्य तत्त्व विवेच्य स्तोत्र में श्रेष्ठ काव्य के सभी गुण विद्यमान है। चित्रात्मकता, रसनीयता, स्वाभाविकता, रमणीयता, चारूता, परात्परता आदि गुण इस स्तोत्र की वल्गुता को अत्यधिक सम्बधित कर रहे हैं। भक्ति एवं शांतरस का मधुरिम वातावरण विद्यमान है । वैदर्भी, रीति एवं माधुर्य तथा प्रसाद गुण के लास्य से सम्पूर्ण स्तोत्र काव्य अनुरजित है । अलंकारों का प्रयोग सहज होने से सौन्दर्य-संवर्धक बन पड़ा है। उदात्त-१, १३, विभावना-२, विशेषोक्ति-२, उपमा-३, ९, अर्थापति-४, ८, १३, दृष्टांत-५, १५, उत्प्रेक्षा-६, यमक-१०, लटानुप्रास-१०, १२, संकर-१०, व्यतिरेक११, १९, २१, २३, ३१, रूपक-२९, काव्यलिङ्ग-९, १८, २०, २३, २६, २७, २८, अर्थान्तर न्यास-४१, अतिशयोक्ति-३९, आदि अलंकारों का सुन्दर विनियोग हुआ है। ___ बसंततिलक छन्द की श्रुतिमधुरता, भावाभिव्यंजकता आदि गुण सम्पूर्ण स्तोत्र में विद्यमान हैं क्योंकि संपूर्ण स्तोत्र बसंततिलका छन्द में ही निबद्ध है। सहज देववाणी में निबद्ध होने के कारण इस स्तोत्र की महत्ता अक्षुण्ण है। तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524582
Book TitleTulsi Prajna 1995 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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