________________
तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा,
भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ?"
हे तीनों लोकों के नाथ ! तुम बुद्ध हो, शंकर हो, मुक्तिमार्ग के विभि-विधान के कर्ता हो, तुम उत्तम पुरुष हो, इसलिए मुझे भी इस रूप में निर्मित करो-यह उसकी प्रार्थना बन जाती है।
इसी प्रकार सिद्धसेन भी कहते हैं
सानिध्यतोऽपि यदि वा तव वीतराग । नीरागतां व्रजति को न सचेतनोऽपि ॥"
इस प्रकार विभिन्न स्तोत्रों के विवेचन से विभिन्न तत्त्वों का प्राकट्य होता है जो मानवीय जीवन के विकास एवं दुःख मुक्ति के लिए उपयोगी हैं। इन तत्त्वों के वैयक्तिक जीवन में समावेश कर लेने से मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है। इनकी शक्ति के सहारे वह वहां पहुंच जाता है जहां पर सत्यं शिवं सुन्दरम् का चिरन्तन अधिवास होता है।
संवर्भ १. उत्तरज्झयणाणि, २९।१५
१५. वही, २२७ २. भक्तामर स्तोत्र, श्लोक ६
१६. वही ११६ ३. आवश्यक सूत्र, २
१७. वही, १०१६ ४. भक्तामर स्तोत्र, श्लोक ३
१८. वही, ७६ ५. कल्याण मन्दिर, श्लोक ५
१९. वही, २।६ ६. भक्तामर स्तोत्र, श्लोक ३
२०. वही, ३१६ ७. कल्याण मन्दिर, श्लोक ४२
२१. भक्तामर स्तोत्र, श्लोक ४. ८. उपसर्ग-हर-स्तोत्र, सूत्र १
२२. भक्तामर स्तोत्र, श्लोक ९ ९. भक्तामर स्तोत्र, श्लोक १-२ २३. वही, श्लोक ७ १०. कल्याण मन्दिर, श्लोक १
२४. वही, श्लोक ९ ११. भक्तामर स्तोत्र, श्लोक ४२
२५. कल्याण मन्दिर, श्लोक ७ १२. चतुविशति गुण गेय गीति, श्लोक ३६ २६. वही, श्लोक, २० १३. जयाचार्यकृत चौबीसी, १६ २७. भक्तामर स्तोत्र, श्लोक १० १४. वही, १९६६
२८. कल्याण मन्दिर, श्लोक २४
૨૪૨
तुलसी प्रशा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org