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अम्भोनिधौ क्षुभित-भीषण-नक्र-चक्र
.........'त्रासं विहाय भवतः स्मरणाद् व्रजन्ति ।" ६. स्तुति अथवा भक्ति का लक्ष्य
जप भक्ति, स्मरण भक्ति, शरणागति भक्त को प्रभु से मिलाने की उत्कृष्ट प्रक्रिया है। उस समय व्यक्ति अपने आपको भूल जाता है। वह सब कुछ प्रभु को अर्पित कर आनन्द की अनुभूति करता है। इन स्तोत्रों में भी एक ओर प्रभु का गुणगान किया है तो दूसरी ओर भक्त अपनी दीन दशा का उल्लेख करते हुए कहता है-प्रभु मेरे में तुम्हारी स्तुति करने की योग्यता नहीं है फिर भी मैं तुम्हारी स्तुति करने के लिए तत्पर हुआ हूं। क्योंकि
"आस्तां तवस्तवनमस्तसमस्तदोष, ............२
तुम्हारी स्तुति तो दूर तुम्हारी कथा करने से सभी पाप दूर हो जाते हैं। स्तुति या भक्ति से ज्ञान, दर्शन चारित्र में वृद्धि होती है। उत्तराध्ययन में स्तुति को मंगल माना है । स्तुति या भक्ति भी अध्यात्म योग की एक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में भी भक्त भक्ति में तल्लीन होकर समस्त पापों का क्षय कर सिद्ध, बुद्ध मुक्त हो सकता
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१०. भव परम्परा विच्छेद
जिनेश्वर की स्तुति भव परम्परा को विच्छिन्न करने का उत्तम साधन है। जब भक्त भगवान् की स्तुति करता है तो उसमें तन्मय हो जाता है । उस समय उसके समक्ष केवल भगवान् का ही रूप दिखाई देता है। वह संसार के स्वरूप को भूलकर उसमें तन्मय हो जाता है। तभी तो स्रोतों में उल्लिखित है
• त्वत्संस्तवेन भवसंतति सन्निबद्धं, पापं क्षणाक्षयमुपैति शरीरभाजाम् । ० त्वत्संकथापि जगतां दुरितानि हन्ति ............. ............।२४ ० नामाऽपि पाति भवतो भवतो जगन्ति..." ० त्वद्गोचरे सुमनसां यदि वा मुनीश ।
गच्छन्ति नूनमघ एव हि बन्धनानि ।।" ११. उपास्य के साथ तादात्म्य
भक्त प्रभु के चरणों में सब कुछ समर्पित कर निश्चित हो जाता है और उस समय प्रभु के साथ उसका अविच्छिन्न तादात्म्य सम्बन्ध हो जाता है। हनुमान राम के भक्त थे। वे अपने में और राम में कोई अन्तर नहीं मानते थे। उन्हें ऐसा लगता था कि राम हर क्षण हर पल मेरे पास है। आचार्य महाप्रज्ञ का समर्पण भी ऐसा ही है । मानतुंग आचार्य जब जिनेश्वर की स्तुति में तन्मय हो जाते हैं उस समय उन्हें जिनेश्वर में और अपने में कोई भेद नहीं दिखाई पड़ता। तभी उनके मुख से स्वतः ही वाणी प्रस्फुटित हो जाती है
नात्यद्भुतं भुवनभूषण ! भूतनाथ,
भूतैर् गुणैर् भुवि भवन्तमभिष्टवन्तः । खुण्ड २०, अंक ३
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