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इस प्रकार लीन हो जाते हैं उनकी बेड़ियां स्वतः ही टूट जाती है
आपाद-कण्ठमुरु-शृंखल वेष्टितांगा, गाढं वहन्निगडकोटि निधृष्टजंघाः । त्वन्नाममन्त्रमनिशं मनुजाः स्मरन्तः,
सद्य स्वयं विगत-बन्धभया भवन्ति ॥" जयाचार्य कृत चौबीसी में भी "विध्न मिट समरण किया"-ऐसा उल्लेख मिलता है । गुरुदेव तुलसी ने भी लिखा है
अशुभानि प्रलयन्त्वखिलानि,
तत् स्मरणाजित-सुकृत मरे ।।१२ अभिनन्दन, श्रेयांस, मल्लि आदि तीर्थङ्करों का स्तुति गान करते हुए जयाचार्य अपने आपको प्रभु की शरण में छोड़ देते हैं वे उदाहरण भी द्रष्टव्य हैं
• जाप तुमारो निश-दिन संभरू-शरणागत सुखकार । • जपत जाप खपत पाप तपत ही मिटायो......."
• नेम जाप्यां पायो सुखसार......" ६. प्रभ प्राप्ति की तीव्र अभिलाषा
ऐसी स्तुति भक्त तभी कर सकता है जब उसके मन में भगवान् को पाने की जिज्ञासा जाग जाती है। परम व्याकुल होकर वह मिलन के लिए उत्कंठित हो जाता है । जयाचार्य कृत चौबीसी में अनेकों स्थलों पर ऐसे प्रसंग मिलते हैं, जिनमें भक्त की विह्वलता प्रकट होती है. • उबा दिशा किण दिन आवसी, मुझ मन उम्हाया।"
• उवाही दशा कद आवसी।" ७. दास्य भाव
भक्त और भगवान् में स्वामी-सेवक भाव का सम्बन्ध होता है। इन स्तोत्रों में केवल भगवान् के गुणों का ही कीर्तन नहीं किया गया है बल्कि स्वयं का दास्य भाव भी दिखलाया गया है । "हूं छू तुम्हारो दास ए-इन भावों की पंक्तियां चौबीसी में कई स्थानों पर है। ८. शरण गति
सुख और दुःख का प्रवाह जीवन में निरन्तर चलता रहता है। कभी सुख आता है, कभी दुःख आता है । सुख का समय आनन्द प्रदान करता है उस समय भगवद् स्मरण का प्रसंग कम देखने को मिलता है लेकिन जब दु.ख आता है तब प्रभु की शरण ही उसके जीवन का आधार बनता है।
• अहो प्रभु शरण आयो तुझ साहिबा ।" • हूं तुझ शरणे आवियो कर्म विदारण तूं प्रभु वीर के ।
प्रभु की शरण व्यक्ति के कष्टों को समाप्त कर देती है। जिसका वर्णन मानतुंग ने स्तोत्र में किया है२४०
तुलसी प्रशा
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