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३. आत्म-समर्पण
जब भक्त के मन में आत्माभिव्यंजना की भावना जाग्रत हो जाती है तब वह अपने आप प्रभु के प्रति पूर्ण समर्पित हो जाता है
तन्मे त्वदेक - शरणस्य शरण्य ! भूया,
स्वामी त्वमेव भवनेऽत्र भवांतरेऽपि ॥
हे प्रभु ! यदि तुम्हारे चरण सरोजों की सतत संचित भक्ति का कोई फल है तो हे शरण्य ! मैं आपकी शरण में हूं। आप मेरे जन्म-जन्म के स्वामी बनें । उस समय भक्त विह्वल हो जाता है । वह प्रभु के चरणों में लोटने लगता है और मन से भगवत् भक्ति में लीन हो जाता है ।
४. भगवद् गुणकीर्तन
भक्त भगवान् की भक्ति में लीन होकर उनके गुणों का कीर्तन करने लग जाता है । आचार्य भद्रबाहु ने 'उवसग्ग हर स्तोत्र' में पार्श्व को सर्वप्रथम वंदन किया है— उवसग्गहरं पासं, पासं वंदामि कम्मघणमुक्कं । विसहर - विसनिन्नासं, मंगल - कल्लाण - आवासं ॥ aar मानतुंग ने कैदखाने में भक्तामर स्तोत्र की रचना कर सृष्टि के प्रवर्तक आदिनाथ ( ऋषभ देव ) की स्तुति की। स्तोत्र के प्रथम श्लोक में ही उन्होंने प्रभु आदिनाथ के गुणों का कीर्तन किया है
भक्तामरप्रणतमौलिमणि - प्रमाणा मुद्योतकं दलित-पाप-तमोवितानम् सम्यक् प्रणम्य जिनपादयुगं युगादावालम्बनं भवजले पततां जनानाम् ॥ यः संस्तुतः सकल-वाङ्मयतत्त्वबोधादुद्भूत- बुद्धि- पटुभिः सुरलोकनाथैः । स्तोत्रैर् जगत्त्रतत्रचित्त - हरं रूदारैः
स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ॥
सिद्धसेन ने कल्याणमन्दिर में तीर्थंकर की स्तवना की है
कल्याण- मन्दिर - मुदारमवद्य - भेदि, भीताभय-प्रदमनिन्दित-मङ्ग लि- पद्मम् । संसार-सागर - निमज्जदशेष-जन्तु, पोतायमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य ।।"
तेरापन्थ के चतुर्थ आचार्य श्रीमद्जयाचार्य व गुरुदेव तुलसी ने भी अपने स्तोत्रों में प्रभु का गुणकीर्तन किया है।
५. नाम-जप
प्रभु के भक्ति का एक रूप और है-जप । निरन्तर जप से कर्मों के बन्धन शिथिल हो जाते हैं और वे टूट जाते हैं । आचार्य मानतुंग जिनेश्वर देव की स्तुति में
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२०, अंक ३
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