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रचना की। अनेकों आचार्यों ने जिनेश्वर की स्तुति की है। तेरापन्थ के चतुर्थ आचार्य जयाचार्य ने राजस्थानी भाषा में रचित चौबीसी में चौबीस गीतिकाओं के द्वारा तीर्थङ्करों की स्तवना की है तो वर्तमान में गुरुदेव तुलसी ने भी 'चतुर्विंशति गुणगेयगीति' स्तव में २४ तीर्थङ्करों, गणधरों, आचार्यों की स्तुति की है। इन स्तुति काव्यों में भक्त की उस महनीय दशा का उल्लेख मिलता है जिसमें कैसे वह सीमा में ही असीम को पकड़ लेता है, और किस प्रकार अजर-अमर प्रभु से अपना अविच्छिन्न सम्बन्ध स्थापित करके उनके तद्रूप बन जाता है।
प्रस्तुत प्रसंग में स्तोत्रों के आधार पर स्तुति के तत्त्व, स्तुति का लक्ष्य आदि विषयों पर विवेचन करने का विनम्र प्रयास किया जा रहा है। १. अहंकार विलय
भक्त भगवान् की स्तुति तभी कर सकता है जब उसके अहंकार का विलय हो जाता है । अहं के वशीभूत होकर व्यक्ति कभी स्तुति नहीं कर सकता। अहं के विलय से ही भक्त के तन में भगवान् के प्रति श्रद्धा उत्पन्न होती है। श्रद्धा प्रगाढ़ होने पर भगवत् आराधना होती है। आचार्य मानतुंग स्रोत की रचना करते समय प्रारम्भ में ही लिखते हैं
बुद्धया विनाऽपि विबुधाचित पादपीठ..........।
इस पंक्ति में आचार्य का अहंकार-विलय उद्घाटित होता है। आचार्य सिद्धसेन ने भी जिनेश्वर की स्तुति में कहा है-“हे नाथ ! मैं जड़बुद्धि होता हुआ भी तुम्हारे असंख्य गुणों वाले आकार की स्तवना करने के लिए उद्यत हुआ हूं
अभ्युद्यतोऽस्मि तव नाथ ! जड़ाशयोऽपि, ___कर्तुं स्तवं लसदसंख्य गुणाकरस्य ।
जयाचार्य ने चौबीसी की रचना करते समय अहंकार विलय का रूप दिखाया है तभी तो उनकी हर गीतिका में "हूं तुझ शरणे आवियो"- इस प्रकार के उद्गार उद्घाटित होते हैं। २. आत्माभिव्यंजना
भक्त जब श्रद्धा से अभिभूत हो जाता है तब वह लज्जा, संकोच का परित्याग करके अपने दोषों और गुणों को यथार्थ रूप से प्रकट कर देता है। उस समय उसका मन निश्छल हो जाता है, और प्रभु दर्शन के लिए उत्कंठित हो जाता है। उस समय उसे अपनी शक्ति का भी भान नहीं रहता है। आचार्य मानतुंग की भी ऐसी ही दशा होती है। जब वे जिनेश्वर की स्तुति करते हैं उस समय उन्हें अपनी बुद्धि का भी ध्यान नहीं रहता है
......"स्तोतुं समुद्यत्मतिर् विगत-अपोऽहम्
बालं विहाय जल संस्थितमिन्दुबिम्ब....।' सिद्धसेन दिवाकर की भी ऐसी ही स्थिति है, वे कहते हैं-हे अधीश ! क्या मेरे जैसा सामान्य मनुष्य तुम्हारे गुणों का वर्णन कर सकता है । कदापि नहीं, फिर भी वह धृष्टता के साथ प्रयत्न कर रहा है।
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तुलसी प्रज्ञा
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