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स्तुति के तत्त्व
ल साध्वी संचितयशा
जैन वाङ्मय में स्तुति की एक सुन्दर परम्परा रही है। जैन आचार्यों ने अपनी रचनाओं के प्रारम्भ में जिनेश्वर देवों की स्तुति की है। स्तुति का अर्थ है-गुणों का कथन करना, गुणों की प्रशंसा करना, गुणों का कीर्तन करना। जिसका प्राकृत रूप है-'थव थुई ।' स्तुति करते समय भक्त जिनेश्वर देव से कभी आत्मानुभूति की याचना करता है तो कभी शाश्वत सुख की प्रार्थना और कभी परमात्मा या तत्सदृश बनने की विनती । उत्तराध्ययन में स्तुति को मंगल माना है, जिससे ज्ञान, दर्शन और चारित्र बृद्धिगत होते हैं।'
भक्ति और स्तुति का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है । भक्ति कोई बाह्य अभिधान नहीं बल्कि भक्त-हृदय रूप मानसरोवर से समुद्भूत अनवच्छिन्न भावधारा का नाम है, जिसका परम लक्ष्य प्रभुपद या जिनेश्वर चरण से शाश्वत सम्बन्ध स्थापित करना है। भक्त भगवान् की आराधना, गुणकथन एवं प्रभुपाद चिन्तन में तल्लीन हो जाता है, तब उसके मुख से अपने आप ही स्तुति या स्तोत्रों की रचना होने लगती है, सम्पूर्ण समर्पण एवं अखण्ड निष्ठा का अवतरण होता है । उस अवस्था में भक्त का हृदय विगलित हो जाता है और उसके पास अपनी तुच्छता तथा प्रभु की महानता एवं दयालुता के अतिरिक्त कुछ भी शेष नहीं रहता । अपनी ह्रस्वता का ज्ञान एवं प्रभु में अखण्डात्मिका शक्ति ही स्तुति-काव्यधारा को प्रवाहित करने में समर्थ हो जाती हैं । मानतुङ्ग के शब्द प्रमाण है___ अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहास धाम त्वद्भक्तिरेव मुखरी कुरुते बलान्माम् ।'
भक्ति की उर्वराभूमि में ही स्तुति काव्य के बीज प्रस्फुटित होते हैं, या कह सकते है कि भक्ति स्तुति की जनयित्री शक्ति है, तो स्तुति से भक्ति की पुष्टि भी होती
जैन साहित्य की प्रमुख निधि है-आगम। आगम-साहित्य में अनेक स्तव या स्तुतियां संग्रथित हैं । सूत्रकृतांग के पांचवे अध्ययन में महावीरत्थुई अनुस्यूत है जिसमें परिकर अलंकार के माध्यम से भगवान् महावीर के कमनीय एवं रमणीय स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है । आवश्यक सूत्र के दूसरे अध्ययन का नाम है-'चउवीसत्थव" जिसमें चौबीस तीर्थकरों की स्तुति की गई है । आचार्य भद्रबाहु ने 'उवसग्ग हर स्तोत्र' की रचना की। जिसका जैन परम्परा में महत्वपूर्ण स्थान है। इस स्तोत्र का वाचन करने से व्यक्ति संघर्षों को पार कर जाता है। उसके रोग उपद्रव मिट जाते हैं।
आचार्य सिद्धसेन ने 'कल्याण-मंदिर', आचार्य मानतुंग ने 'भक्तामर स्तोत्र की
बल २०, बक ३
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